सही नीयत, अच्छी सोच, सही योजना और अधिकार के बावजूद लागू न करना

कई बार हमारा मक़सद भी अच्छा होता है, हमारी सोच भी सही होती है, हमारी प्लानिंग भी परफ़ेक्ट होती है, हमारे पास करने के अधिकार भी पूरे होते हैं, फिर भी हम वो नहीं कर पाते जिसे करना ज़रूरी होता है… 


क्योंकि अगर हम अपनी सोच के हिसाब से ही सबकुछ करने लग जाएँगे तो उनकी ज़िंदगी के कोई मायने नहीं रह जाएँगे जो कि हमारे फ़ैसले से प्रभावित हो रहे होंगे। भले ही हमारी कोशिश उन्हीं की ज़िंदगी सुधारने की ही क्यों ना हो… 


इस बात को एक उदाहरण से समझने कि कोशिश करते हैं, अपनी ज़िंदगी में हम अगर घर के बेटे के तौर पर देखते हैं कि हमारी मां और हमारी पत्नी हमारी सोच के ख़िलाफ़ चल रही होती है। हमें लगता है कि माँ इस तरह चले और पत्नी उस तरह चले तो घर का माहौल ख़ुशगवार हो जाएगा। आपसी खींचतान ख़त्म हो जाएगी। 


यहाँ हमारा मक़सद भी सही होता है, पर अगर हम अपनी सोच उनके ऊपर ज़बरदस्ती थोपते हैं, तो उनकी ज़िंदगी के मायने ख़त्म हो जाते हैं। उन दोनों का अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने का हक़ ख़त्म हो जाता है। हमारे ज़बरदस्ती कंट्रोल करने से झगड़े या फिर खींचतान तो ख़त्म हो सकती है, पर ज़िंदगी में जो लुत्फ़ आना चाहिए वो खो जाता है। क्योंकि इसके लिए उन दोनों को अपनी पर्सनेलिटी को ख़त्म करना पड़ता है। इंसान को फ़ितरत ही ऊपर वाले ने ऐसी बनाई है।



हालाँकि ऐसे में आप कुछ और भी कर सकते हैं, जैसे कि किचकिच से तंग आकर संयुक्त परिवार से विद्रोह करके अलग रह सकते हैं, पर इसमें भी आप एक ही पक्ष को खुश रख पाते हैं और दूसरे के साथ अन्याय करते हैं। और यह हमारा फ़र्ज़ है कि हम उनके साथ न्याय करें, जिनका हमारे ऊपर हक़ है!

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ला इलाहा और इल्लल्लाह का तात्पर्य

कलमा की शुरुआत 'ला इलाहा' से होती है, मतलब कि नहीं है कोई उपास्य (जिसकी उपासना की जा सकती हो), जो कि किसी नास्तिक का भी कलमा होता है। फिर दूसरा पार्ट है 'इल्लल्लाह', जिसका मतलब है सिवाए अल्लाह/रब/ईश्वर/गॉड के... यह मेसेज दुनिया के हर दौर में, अलग-अलग भाषाओं, अलग-अलग देश/क्षेत्र में आए ईश दूतों ने इंसानों को दिया है। 


इस कलमा/कथन का तात्पर्य ही यह है कि किसी नास्तिक या फिर आस्तिक के पुत्र/पुत्री तब तक धार्मिक नहीं है जब तक कि उसे अपने रब यानी creater में आस्था पैदा नहीं होती है। मतलब मुस्लिम के बच्चे मुस्लिम, हिंदू के बच्चे हिंदू, सिख के बच्चे सिख, ईसाई के बच्चे ईसाई, यहूदी के बच्चे यहूदी हरगिज़ नहीं हो सकते हैं जब तक कि उनके अंदर कलमें के पहले पार्ट के बाद वाली उत्सुकता पैदा नहीं हो और वो दूसरे पार्ट की खोजकर करके उसके ऊपर आस्था ना ले आए!


मतलब उसे रिसर्च करनी चाहिए कि क्या उसका कोई रब है या नहीं और जब दिल इस बात पर विश्वास कर ले कि हां कोई उसका रब/creater है तब उसे अपने रब को खोजना चाहिए और जब उसकी खोज पूरी हो जाए तो अपनी जिंदगी उसकी मर्ज़ी से गुज़ारनी चाहिए।


विश्वास कीजिए कि जिसने भी इस प्रोसेस को अपनाया उसकी मौत इससे पहले आ ही नहीं सकती है जब तक कि उसके रब की हकीकत साफ़ साफ़ उसके सामने ज़ाहिर नहीं हो जाए, क्योंकि फिर ज़िम्मेदारी आपकी नहीं आपके रब की है!


पर यह प्रोसेस कोई धर्म का दुकानदार हमें नहीं बताएगा, क्योंकि फिर आपसी दुश्मनियां और धर्म की लड़ाइयां खत्म हो जाएंगी, मतलब उनकी दुकानदारी खत्म हो जाएगी। जिसके ज़रिए वो अपना पेट भरते हैं या फिर सत्ता चलाते हैं। वैसे सत्ता सिर्फ देश/राज्य की ही नहीं होती है, बल्कि घर की, मौहल्ले की, एरिया की, किसी ग्रुप की या फिर कौम की भी होती है।

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प्रेशर में काम करने के दुष्परिणाम

हम आमतौर पर अपने बच्चों पर प्रेशर डालकर काम करवाना चाहते हैं, जैसे कि पिटाई का डर दिखाकर, नाकामयाबी का डर दिखाकर, गरीबी का डर दिखाकर... जबकि इंसान प्रेशर में जबरदस्ती काम तो कर लेता है, पर उसका दिमाग प्रेशर को बहुत देर तक झेल नहीं पाता है।


कुछ बच्चों का दिमाग इतना मजबूत नहीं होता है और धीरे-धीरे उनकी प्रेशर झेलने की क्षमता खत्म होती चली जाती है। ऐसे ही बच्चे, बचपन में या फिर बड़े होने के बाद भी नाकामयाबी के डर से ख़ुद को नुकसान तक पहुंचा देते हैं। 


आजकल की कंपनियां भी अपनी एम्पलाईज को मोटिवेट करने की जगह प्रेशर में झोंक कर काम करवाती हैं, खासतौर पर सेल्स टारगेट वाली कंपनियां तो इंसानी जिंदगी के लिए नासूर की तरह हैं!


जबकि होना यह चाहिए कि जो हम करवाना चाहते हैं, हर बार उन्हें वो करने के लिए मोटिवेट करें, लॉजिक से समझाएं, कि फलां काम क्यों ज़रूरी है और उसके होने या नहीं होने के क्या फायदे और क्या नुकसान हैं। उन्हें नाकामयाबी से डराएं नहीं, बल्कि सिर्फ मार्गदर्शन करके उनके ऊपर छोड़ दें, उन्हें खुद से फेल या पास होने दें। और फेल होने पर समझाएं कि यही ज़िंदगी है, फेल होने का भी लुत्फ उठाओ और जिन वजहों फेल हुए हो, उनके ऊपर गौर करो। 


वो अगर बार-बार भी फेल होते हैं, तब भी उन्हें मोटिवेट करना हैं। क्योंकि इससे उनके अंदर जो समझ पैदा होगी, हार का डर खत्म होगा, वो उन्हें स्थाई तौर पर मज़बूत और कामयाब बनाएगा। 



यही काम सफलता पर भी करना है, सफलता इंसान को अपनी कमियों को देखने से रोकती है, जो कि लॉन्ग टर्म पर और भी ज़्यादा नुकसानदेह है।


मतलब फेलियर और सफलता दोनों इंसान के लिए उसके रब की तरफ से अवसर हैं!

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भावनात्मक रूप से मूर्ख लोग

इमोशनली बेवकूफ लोग चलते फिरते बारूद की तरह हैं, कोई भी कभी भी इनके ज़रिए किसी का भी कत्ल करवा सकता है, दंगा भड़का सकता है।


हमारे देश में ऐसे लोगों गोमांस या फिर धर्मविरोध के नाम पर मॉब लिंचिंग करते पाए जाते हैं। ठीक ऐसे ही पाकिस्तान में भी गली गली में ऐसे बारूद के ढेर घूम रहे हैं। बस उन्हे यह कहकर इमोशनल बेवकूफ बनाना होता है कि फलां ने अल्लाह या फिर अल्लाह के रसूल (स.) की शान में गुस्ताखी की है। 


फिर इमोशंस भड़कने पर शैतान बने यह लोग ना तो कोई फैक्ट्स चेक करते हैं, ना उन्हे किसी प्रूफ की ज़रूरत होती है और ना ही किसी अदालत में जुर्म साबित करना होता है। सज़ा भी थोड़ी बहुत नहीं, बल्कि शैतानों की भीड़ खुद ही सज़ा देते हुए सीधे लिंचिग कर देती है। 


पिछले दिनों पाकिस्तान से ऐसी ही एक दिल दुखाने वाली खबर आई थी, उमेरकोट के रहने वाले डॉ शाहनवाज खानबर के फेसबुक अकाउंट से एक पोस्ट हुई, जिसमे उनके ऊपर पैगंबर मुहम्मद (स.) की बेहुरमती करने का आरोप लगा। भीड़ इनके घर पहुंच गई, वह उस समय शहर में भी नही थे। इन्होंने कहा कि उनका फोन हैक हुआ है, पुलिस जांच कर ले, मैं जांच के लिए तैयार हूं। 

पर ख़ुद पुलिस ने ही उन्हें फर्जी एनकाउंटर में मार डाला और इसके बाद वहां के कट्टर मज़हबी पार्टी वालो ने उनकी लाश तक को जला डाला।


यह सिर्फ एक उदाहरण है, पर ऐसा वहां भी आए दिन होता रहता है। पाकिस्तान की आर्थिक और दिमागी बदहाली की ज़िम्मेदारी इन इमोशनल बेवकूफ कट्टरपंथियों पर भी आती है। 


उनकी इस बदहाली के बावजूद इस तरफ वाले इमोशनल बेवकूफ उनसे खूब रेस लगा रहे हैं!

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औरंगज़ेब सिर्फ एक शासक था

औरंगज़ेब भी दूसरे राजाओं की तरह एक शासक ही था, जिसके अंदर बहुत सारी खूबियाँ थीं और ऐसे ही बहुत सारी कमियाँ भी थीं, पर उन खूबियों और कमियों का देश के मुसलमानों से कोई ताल्लुक़ नहीं है। भले ही उसने किताबें लिखकर और रस्सियां बुनकर अपना खर्च चलाने जैसा बेहतरीन काम होगा, पर सत्ता की लड़ाई में अपने सगे भाइयों की हत्या करने वाला, अपने भाई दारा शिकोह की हत्या के बाद उसके पार्थिव शरीर को शहर में घुमाकर नुमाइश करने वाला और उसके सिर को तश्तरी में सजाकर अपने पिता के सामने पेश करने वाले से हमारा सम्बन्ध तो हरगिज़ नहीं हो सकता है। 


कुछ कट्टरपंथी जरूर उसका महिमामंडन करते हो, पर आम मुसलमान उसे अपना आदर्श नहीं मानते हैं, किसी भी बच्चों का नाम औरंगज़ेब नहीं रखा जाता है। उसे सिर्फ एक ऐसे शासक के तौर पर याद किया जाता है, जो कि शासन में क्रूर होने के बावजूद जनता के पैसे की बर्बादी नहीं करता था। अपना खर्च अपनी मेहनत कमाई से चलाता था, जबकि नार्मल परसेप्शन है कि शासक वर्ग जनता को शोषित करके सत्ता सुख भोगते हैं। 

हालाँकि राजनैतिक फ़ायदे के लिये अगर कोई नफ़रत फैलाने के मक़सद से झूठ गढ़ता है तो उसका विरोध करना और सही फैक्ट्स सामने रखना भी बिलकुल सही और ज़रूरी है। जैसे कि कहा जाता है कि "औरंगज़ेब रोज़ 40 मन जनेऊ जलाता था"। जबकि एक जनेऊ लगभग 50 ग्राम का होता है, तो 40 मन जनेऊ जलाने का मतलब हुआ प्रतिदिन 1600 किलो, अर्थात 32000 ब्राह्मणों की हत्या होना। और इस हिसाब से एक साल में मारे गए ब्राह्मणों की संख्या 1,16,48,000 हुई, मतलब पूरे शासन काल में 5,82,40,000 यानी लगभग 58 करोड़ ब्राह्मण मारे गए, जो कि असंभव फिगर है। हक़ीक़त यह है कि औरंगज़ेब के समय देश की जनसंख्या सिर्फ 15 करोड़ थी, इसमें वयस्क लगभग 8 करोड़ ही रहे होंगे जिसमें ब्राह्मण समुदाय की जनसँख्या लगभग 1 करोड़ ही होगी और उसमें से भी पुरुष 50-60 लाख ही रहे होंगे। यह बात ऐतिहासिक साक्ष्यों के तो विरुद्ध है ही, तर्क के भी पैमानों पर झूठी साबित होती है! 

हालाँकि ऐतेहासिक साक्ष्यों के हिसाब से किसी भी शासक ने जो ग़लतियाँ की उन ग़लतियों की बुराई करना और जो अच्छे कदम उठाए उन कदमों की सराहना करने का भी सभी को अधिकार है। हर दौर के शासकों ने अपने राज्य को बढ़ाने के लिए आज के दौर के पैमाने के एतबार से अच्छे और बुरे काम किये हैं, ऐसे ही औरंगज़ेब ने भी कुछ क्रूर कदम भी उठाए और कुछ जनहितकारी और दूरदर्शिता वाले काम भी किये। औरंगज़ेब ने कुछ हिन्दू समुदाय के हित में तो कुछ विरोध में काम किये, ऐसे ही मुस्लिम समुदाय को लुभाने के लिए, तो कुछ विरोध में काम किये। विभिन्न शासकों के इतिहास में दर्ज अच्छे और बुरे कामों का मक़सद अपने शासन को मज़बूत और बड़ा बनाने के सिवा मुझे कुछ और नज़र नहीं आता है। 

हालाँकि मैं शासकों को कभी कोई ख़ास विरोध नहीं करता हूँ और ना ही उन्हें रोल मॉडल या हीरो समझता हूँ। यक़ीन कीजिए कि जिस चंगेज़ ख़ान को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है, जिसने करोड़ों मुसलमानों का क़त्ल किया, मैं उससे भी कभी नफ़रत नहीं करता हूँ। 

इसकी एक वजह यह भी है कि शासकों के बारे में इतिहास में जो लिखा है वो भी ज़रूरी नहीं है कि शब्द दर शब्द सच ही हो। उस वक़्त की परिस्थितियों को आज के वक़्त समझना वैसे भी बेहद मुश्किल काम है और जो लिखा गया है उनकी सच्चाई को परखना मेरे जैसों के लिए असंभव सा है। जैसे कि आज गोदी मीडिया है वैसे भी तब भी किताबें चाटुकारों अथवा विरोधियों ने लिखी होंगी। जिसमें सच का कितना अंश होगा यह पता लगाना नामुमकिन जैसा ही है। हालाँकि हमारे पास उस समय को जानने के एकमात्र साधन ऐतिहासिक साक्ष्य ही हैं, इसलिए हम उनके ऊपर विश्वास करके चलते हैं। पर हमें इतिहास को इतिहास ही समझना चाहिए, उसे किसी धर्मग्रन्थ की तरह 100% सही समझ कर नहीं चलना चाहिए। 

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साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की राजनीति और इसका नुक़सान


मैं अपने बचपन से चुनावों में सांप्रदायिक नफरत का चक्रव्यूह देखता आ रहा हूं। चुनाव करीब आते ही बीजेपी तुरंत हिन्दू मुस्लिम पर और कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियां जनता के कामों पर सवाल करने या हिसाब-किताब देने की जगह बीजेपी के चक्रव्यूह में फंसकर उसके एजेंडे पर बात करती नज़र आती हैं। 

यह दोनों तरफ़ की पार्टियां चाहती हैं कि चुनाव सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता पर लड़ा जाए। क्योंकि इससे दोनों तरफ के लोगों को किसी एक पार्टी को वोट देना मजबूरी बन जाता है। फिर चुनाव में लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि उनके काम हुए या नहीं हुए, देश या राज्य तरक़्क़ी की राह पर जा रहा है या नहीं।

हालांकि कांग्रेस जैसी पार्टियां यह भूल जाती हैं कि जब नफरतें चरम पर होती हैं, तो फिर चाहे सेकुलर माइंडसेट वाले हिंदू हों या फिर मुसलमान, दोनों ही कम्युनल एजेंडे पर वोट देने को मजबूर हो जाते हैं और इनकी हार की यही वजह है!

देश के लोगों के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि चुनाव इमोशनल इशुज़ की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता के कामों पर होने चाहिए। मतलब क्या काम किए, क्या नाकामी रही और आगे का क्या एजेंडा है, लोकतंत्र इसी का नाम है कि चुनाव के वक्त जनता अपने कामों के हिसाब से वोट दे! 

साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के नाम से होने वाली राजनीति को हाशिए पर लाने का मेरी नज़र में सिर्फ यही एक हल है।

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