सही नीयत, अच्छी सोच, सही योजना और अधिकार के बावजूद लागू न करना

  • by
  • Shah Nawaz
  • कई बार हमारा मक़सद भी अच्छा होता है, हमारी सोच भी सही होती है, हमारी प्लानिंग भी परफ़ेक्ट होती है, हमारे पास करने के अधिकार भी पूरे होते हैं, फिर भी हम वो नहीं कर पाते जिसे करना ज़रूरी होता है… 


    क्योंकि अगर हम अपनी सोच के हिसाब से ही सबकुछ करने लग जाएँगे तो उनकी ज़िंदगी के कोई मायने नहीं रह जाएँगे जो कि हमारे फ़ैसले से प्रभावित हो रहे होंगे। भले ही हमारी कोशिश उन्हीं की ज़िंदगी सुधारने की ही क्यों ना हो… 


    इस बात को एक उदाहरण से समझने कि कोशिश करते हैं, अपनी ज़िंदगी में हम अगर घर के बेटे के तौर पर देखते हैं कि हमारी मां और हमारी पत्नी हमारी सोच के ख़िलाफ़ चल रही होती है। हमें लगता है कि माँ इस तरह चले और पत्नी उस तरह चले तो घर का माहौल ख़ुशगवार हो जाएगा। आपसी खींचतान ख़त्म हो जाएगी। 


    यहाँ हमारा मक़सद भी सही होता है, पर अगर हम अपनी सोच उनके ऊपर ज़बरदस्ती थोपते हैं, तो उनकी ज़िंदगी के मायने ख़त्म हो जाते हैं। उन दोनों का अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने का हक़ ख़त्म हो जाता है। हमारे ज़बरदस्ती कंट्रोल करने से झगड़े या फिर खींचतान तो ख़त्म हो सकती है, पर ज़िंदगी में जो लुत्फ़ आना चाहिए वो खो जाता है। क्योंकि इसके लिए उन दोनों को अपनी पर्सनेलिटी को ख़त्म करना पड़ता है। इंसान को फ़ितरत ही ऊपर वाले ने ऐसी बनाई है।



    हालाँकि ऐसे में आप कुछ और भी कर सकते हैं, जैसे कि किचकिच से तंग आकर संयुक्त परिवार से विद्रोह करके अलग रह सकते हैं, पर इसमें भी आप एक ही पक्ष को खुश रख पाते हैं और दूसरे के साथ अन्याय करते हैं। और यह हमारा फ़र्ज़ है कि हम उनके साथ न्याय करें, जिनका हमारे ऊपर हक़ है!

    Read More...

    ला इलाहा और इल्लल्लाह का तात्पर्य

  • by
  • Shah Nawaz
  • कलमा की शुरुआत 'ला इलाहा' से होती है, मतलब कि नहीं है कोई उपास्य (जिसकी उपासना की जा सकती हो), जो कि किसी नास्तिक का भी कलमा होता है। फिर दूसरा पार्ट है 'इल्लल्लाह', जिसका मतलब है सिवाए अल्लाह/रब/ईश्वर/गॉड के... यह मेसेज दुनिया के हर दौर में, अलग-अलग भाषाओं, अलग-अलग देश/क्षेत्र में आए ईश दूतों ने इंसानों को दिया है। 


    इस कलमा/कथन का तात्पर्य ही यह है कि किसी नास्तिक या फिर आस्तिक के पुत्र/पुत्री तब तक धार्मिक नहीं है जब तक कि उसे अपने रब यानी creater में आस्था पैदा नहीं होती है। मतलब मुस्लिम के बच्चे मुस्लिम, हिंदू के बच्चे हिंदू, सिख के बच्चे सिख, ईसाई के बच्चे ईसाई, यहूदी के बच्चे यहूदी हरगिज़ नहीं हो सकते हैं जब तक कि उनके अंदर कलमें के पहले पार्ट के बाद वाली उत्सुकता पैदा नहीं हो और वो दूसरे पार्ट की खोजकर करके उसके ऊपर आस्था ना ले आए!


    मतलब उसे रिसर्च करनी चाहिए कि क्या उसका कोई रब है या नहीं और जब दिल इस बात पर विश्वास कर ले कि हां कोई उसका रब/creater है तब उसे अपने रब को खोजना चाहिए और जब उसकी खोज पूरी हो जाए तो अपनी जिंदगी उसकी मर्ज़ी से गुज़ारनी चाहिए।


    विश्वास कीजिए कि जिसने भी इस प्रोसेस को अपनाया उसकी मौत इससे पहले आ ही नहीं सकती है जब तक कि उसके रब की हकीकत साफ़ साफ़ उसके सामने ज़ाहिर नहीं हो जाए, क्योंकि फिर ज़िम्मेदारी आपकी नहीं आपके रब की है!


    पर यह प्रोसेस कोई धर्म का दुकानदार हमें नहीं बताएगा, क्योंकि फिर आपसी दुश्मनियां और धर्म की लड़ाइयां खत्म हो जाएंगी, मतलब उनकी दुकानदारी खत्म हो जाएगी। जिसके ज़रिए वो अपना पेट भरते हैं या फिर सत्ता चलाते हैं। वैसे सत्ता सिर्फ देश/राज्य की ही नहीं होती है, बल्कि घर की, मौहल्ले की, एरिया की, किसी ग्रुप की या फिर कौम की भी होती है।

    Read More...

    प्रेशर में काम करने के दुष्परिणाम

  • by
  • Shah Nawaz
  • हम आमतौर पर अपने बच्चों पर प्रेशर डालकर काम करवाना चाहते हैं, जैसे कि पिटाई का डर दिखाकर, नाकामयाबी का डर दिखाकर, गरीबी का डर दिखाकर... जबकि इंसान प्रेशर में जबरदस्ती काम तो कर लेता है, पर उसका दिमाग प्रेशर को बहुत देर तक झेल नहीं पाता है।


    कुछ बच्चों का दिमाग इतना मजबूत नहीं होता है और धीरे-धीरे उनकी प्रेशर झेलने की क्षमता खत्म होती चली जाती है। ऐसे ही बच्चे, बचपन में या फिर बड़े होने के बाद भी नाकामयाबी के डर से ख़ुद को नुकसान तक पहुंचा देते हैं। 


    आजकल की कंपनियां भी अपनी एम्पलाईज को मोटिवेट करने की जगह प्रेशर में झोंक कर काम करवाती हैं, खासतौर पर सेल्स टारगेट वाली कंपनियां तो इंसानी जिंदगी के लिए नासूर की तरह हैं!


    जबकि होना यह चाहिए कि जो हम करवाना चाहते हैं, हर बार उन्हें वो करने के लिए मोटिवेट करें, लॉजिक से समझाएं, कि फलां काम क्यों ज़रूरी है और उसके होने या नहीं होने के क्या फायदे और क्या नुकसान हैं। उन्हें नाकामयाबी से डराएं नहीं, बल्कि सिर्फ मार्गदर्शन करके उनके ऊपर छोड़ दें, उन्हें खुद से फेल या पास होने दें। और फेल होने पर समझाएं कि यही ज़िंदगी है, फेल होने का भी लुत्फ उठाओ और जिन वजहों फेल हुए हो, उनके ऊपर गौर करो। 


    वो अगर बार-बार भी फेल होते हैं, तब भी उन्हें मोटिवेट करना हैं। क्योंकि इससे उनके अंदर जो समझ पैदा होगी, हार का डर खत्म होगा, वो उन्हें स्थाई तौर पर मज़बूत और कामयाब बनाएगा। 



    यही काम सफलता पर भी करना है, सफलता इंसान को अपनी कमियों को देखने से रोकती है, जो कि लॉन्ग टर्म पर और भी ज़्यादा नुकसानदेह है।


    मतलब फेलियर और सफलता दोनों इंसान के लिए उसके रब की तरफ से अवसर हैं!

    Read More...

    भावनात्मक रूप से मूर्ख लोग

  • by
  • Shah Nawaz
  • इमोशनली बेवकूफ लोग चलते फिरते बारूद की तरह हैं, कोई भी कभी भी इनके ज़रिए किसी का भी कत्ल करवा सकता है, दंगा भड़का सकता है।


    हमारे देश में ऐसे लोगों गोमांस या फिर धर्मविरोध के नाम पर मॉब लिंचिंग करते पाए जाते हैं। ठीक ऐसे ही पाकिस्तान में भी गली गली में ऐसे बारूद के ढेर घूम रहे हैं। बस उन्हे यह कहकर इमोशनल बेवकूफ बनाना होता है कि फलां ने अल्लाह या फिर अल्लाह के रसूल (स.) की शान में गुस्ताखी की है। 


    फिर इमोशंस भड़कने पर शैतान बने यह लोग ना तो कोई फैक्ट्स चेक करते हैं, ना उन्हे किसी प्रूफ की ज़रूरत होती है और ना ही किसी अदालत में जुर्म साबित करना होता है। सज़ा भी थोड़ी बहुत नहीं, बल्कि शैतानों की भीड़ खुद ही सज़ा देते हुए सीधे लिंचिग कर देती है। 


    पिछले दिनों पाकिस्तान से ऐसी ही एक दिल दुखाने वाली खबर आई थी, उमेरकोट के रहने वाले डॉ शाहनवाज खानबर के फेसबुक अकाउंट से एक पोस्ट हुई, जिसमे उनके ऊपर पैगंबर मुहम्मद (स.) की बेहुरमती करने का आरोप लगा। भीड़ इनके घर पहुंच गई, वह उस समय शहर में भी नही थे। इन्होंने कहा कि उनका फोन हैक हुआ है, पुलिस जांच कर ले, मैं जांच के लिए तैयार हूं। 

    पर ख़ुद पुलिस ने ही उन्हें फर्जी एनकाउंटर में मार डाला और इसके बाद वहां के कट्टर मज़हबी पार्टी वालो ने उनकी लाश तक को जला डाला।


    यह सिर्फ एक उदाहरण है, पर ऐसा वहां भी आए दिन होता रहता है। पाकिस्तान की आर्थिक और दिमागी बदहाली की ज़िम्मेदारी इन इमोशनल बेवकूफ कट्टरपंथियों पर भी आती है। 


    उनकी इस बदहाली के बावजूद इस तरफ वाले इमोशनल बेवकूफ उनसे खूब रेस लगा रहे हैं!

    Read More...

    औरंगज़ेब सिर्फ एक शासक था

  • by
  • Shah Nawaz
  • औरंगज़ेब भी दूसरे राजाओं की तरह एक शासक ही था, जिसके अंदर बहुत सारी खूबियाँ थीं और ऐसे ही बहुत सारी कमियाँ भी थीं, पर उन खूबियों और कमियों का देश के मुसलमानों से कोई ताल्लुक़ नहीं है। भले ही उसने किताबें लिखकर और रस्सियां बुनकर अपना खर्च चलाने जैसा बेहतरीन काम होगा, पर सत्ता की लड़ाई में अपने सगे भाइयों की हत्या करने वाला, अपने भाई दारा शिकोह की हत्या के बाद उसके पार्थिव शरीर को शहर में घुमाकर नुमाइश करने वाला और उसके सिर को तश्तरी में सजाकर अपने पिता के सामने पेश करने वाले से हमारा सम्बन्ध तो हरगिज़ नहीं हो सकता है। 


    कुछ कट्टरपंथी जरूर उसका महिमामंडन करते हो, पर आम मुसलमान उसे अपना आदर्श नहीं मानते हैं, किसी भी बच्चों का नाम औरंगज़ेब नहीं रखा जाता है। उसे सिर्फ एक ऐसे शासक के तौर पर याद किया जाता है, जो कि शासन में क्रूर होने के बावजूद जनता के पैसे की बर्बादी नहीं करता था। अपना खर्च अपनी मेहनत कमाई से चलाता था, जबकि नार्मल परसेप्शन है कि शासक वर्ग जनता को शोषित करके सत्ता सुख भोगते हैं। 

    हालाँकि राजनैतिक फ़ायदे के लिये अगर कोई नफ़रत फैलाने के मक़सद से झूठ गढ़ता है तो उसका विरोध करना और सही फैक्ट्स सामने रखना भी बिलकुल सही और ज़रूरी है। जैसे कि कहा जाता है कि "औरंगज़ेब रोज़ 40 मन जनेऊ जलाता था"। जबकि एक जनेऊ लगभग 50 ग्राम का होता है, तो 40 मन जनेऊ जलाने का मतलब हुआ प्रतिदिन 1600 किलो, अर्थात 32000 ब्राह्मणों की हत्या होना। और इस हिसाब से एक साल में मारे गए ब्राह्मणों की संख्या 1,16,48,000 हुई, मतलब पूरे शासन काल में 5,82,40,000 यानी लगभग 58 करोड़ ब्राह्मण मारे गए, जो कि असंभव फिगर है। हक़ीक़त यह है कि औरंगज़ेब के समय देश की जनसंख्या सिर्फ 15 करोड़ थी, इसमें वयस्क लगभग 8 करोड़ ही रहे होंगे जिसमें ब्राह्मण समुदाय की जनसँख्या लगभग 1 करोड़ ही होगी और उसमें से भी पुरुष 50-60 लाख ही रहे होंगे। यह बात ऐतिहासिक साक्ष्यों के तो विरुद्ध है ही, तर्क के भी पैमानों पर झूठी साबित होती है! 

    हालाँकि ऐतेहासिक साक्ष्यों के हिसाब से किसी भी शासक ने जो ग़लतियाँ की उन ग़लतियों की बुराई करना और जो अच्छे कदम उठाए उन कदमों की सराहना करने का भी सभी को अधिकार है। हर दौर के शासकों ने अपने राज्य को बढ़ाने के लिए आज के दौर के पैमाने के एतबार से अच्छे और बुरे काम किये हैं, ऐसे ही औरंगज़ेब ने भी कुछ क्रूर कदम भी उठाए और कुछ जनहितकारी और दूरदर्शिता वाले काम भी किये। औरंगज़ेब ने कुछ हिन्दू समुदाय के हित में तो कुछ विरोध में काम किये, ऐसे ही मुस्लिम समुदाय को लुभाने के लिए, तो कुछ विरोध में काम किये। विभिन्न शासकों के इतिहास में दर्ज अच्छे और बुरे कामों का मक़सद अपने शासन को मज़बूत और बड़ा बनाने के सिवा मुझे कुछ और नज़र नहीं आता है। 

    हालाँकि मैं शासकों को कभी कोई ख़ास विरोध नहीं करता हूँ और ना ही उन्हें रोल मॉडल या हीरो समझता हूँ। यक़ीन कीजिए कि जिस चंगेज़ ख़ान को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन माना जाता है, जिसने करोड़ों मुसलमानों का क़त्ल किया, मैं उससे भी कभी नफ़रत नहीं करता हूँ। 

    इसकी एक वजह यह भी है कि शासकों के बारे में इतिहास में जो लिखा है वो भी ज़रूरी नहीं है कि शब्द दर शब्द सच ही हो। उस वक़्त की परिस्थितियों को आज के वक़्त समझना वैसे भी बेहद मुश्किल काम है और जो लिखा गया है उनकी सच्चाई को परखना मेरे जैसों के लिए असंभव सा है। जैसे कि आज गोदी मीडिया है वैसे भी तब भी किताबें चाटुकारों अथवा विरोधियों ने लिखी होंगी। जिसमें सच का कितना अंश होगा यह पता लगाना नामुमकिन जैसा ही है। हालाँकि हमारे पास उस समय को जानने के एकमात्र साधन ऐतिहासिक साक्ष्य ही हैं, इसलिए हम उनके ऊपर विश्वास करके चलते हैं। पर हमें इतिहास को इतिहास ही समझना चाहिए, उसे किसी धर्मग्रन्थ की तरह 100% सही समझ कर नहीं चलना चाहिए। 

    Read More...

    साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता की राजनीति और इसका नुक़सान

  • by
  • Shah Nawaz

  • मैं अपने बचपन से चुनावों में सांप्रदायिक नफरत का चक्रव्यूह देखता आ रहा हूं। चुनाव करीब आते ही बीजेपी तुरंत हिन्दू मुस्लिम पर और कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टियां जनता के कामों पर सवाल करने या हिसाब-किताब देने की जगह बीजेपी के चक्रव्यूह में फंसकर उसके एजेंडे पर बात करती नज़र आती हैं। 

    यह दोनों तरफ़ की पार्टियां चाहती हैं कि चुनाव सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता पर लड़ा जाए। क्योंकि इससे दोनों तरफ के लोगों को किसी एक पार्टी को वोट देना मजबूरी बन जाता है। फिर चुनाव में लोगों को इस बात से फर्क नहीं पड़ता है कि उनके काम हुए या नहीं हुए, देश या राज्य तरक़्क़ी की राह पर जा रहा है या नहीं।

    हालांकि कांग्रेस जैसी पार्टियां यह भूल जाती हैं कि जब नफरतें चरम पर होती हैं, तो फिर चाहे सेकुलर माइंडसेट वाले हिंदू हों या फिर मुसलमान, दोनों ही कम्युनल एजेंडे पर वोट देने को मजबूर हो जाते हैं और इनकी हार की यही वजह है!

    देश के लोगों के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि चुनाव इमोशनल इशुज़ की जगह सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता के कामों पर होने चाहिए। मतलब क्या काम किए, क्या नाकामी रही और आगे का क्या एजेंडा है, लोकतंत्र इसी का नाम है कि चुनाव के वक्त जनता अपने कामों के हिसाब से वोट दे! 

    साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता के नाम से होने वाली राजनीति को हाशिए पर लाने का मेरी नज़र में सिर्फ यही एक हल है।

    Read More...

    आप कारोबार में जितना ज़्यादा मेहनत करते हैं उतना ही कम कमाते हैं

  • by
  • Shah Nawaz
  • जब आप अपने कारोबार में ज़्यादा मेहनत करते हैं तो उसके दो नुकसान होते हैं, एक तो कारोबार को आगे बढ़ाने के लिए ज़रूरी नेटवर्क को बनाने के साथ-साथ बाकी कारोबार में इन्वेस्ट करने का टाइम नहीं निकल पाते हैं और दूसरा ख़ुद को और परिवार को टाइम कम देने की वजह से क्वालिटी ऑफ लाइफ नहीं जी पाते हैं। अगर जिंदगी में लुत्फ नहीं है तो इसका मतलब अपने रब (बनाने वाले) के शुक्रगुजार नहीं हैं, जिसका असर मेंटल लेवल पर पड़ता है और फिर इसकी वजह से आपकी प्रोफेशनल लाइफ की ग्रोथ  इस स्पीड से नहीं हो पाती है, जितनी ज़रूरत होती है।

    इसलिए वक्त के साथ साथ बैलेंस बनाते हुए कारोबार में ख़ुद की मेहनत को कम करते जाइए और कारोबार चलाने और बढ़ाने के लिए ज़रूरी नेटवर्क को मज़बूत करते जाइए... 

    खुद अधिक मेहनत करने की जगह टीम बनाने उसे मैनेज करना सीखिए। मेरे एक मित्र का पारिवारिक कारोबार अच्छा चलता था, मैंने उसे समझाया कि आप लोग स्वयं मेहनत में लगे रहते हैं, इसकी जगह आपको काम करने वाले कारीगर लगाने चाहिए। इससे जो समय बचेगा उसे आप व्यसाय बढ़ाने में लगा सकते हैं। पर उसके पिता को यह बात समझ नहीं आई, उन्होंने कहा कि हम हाथ के कारीगर है फिर हम खुद काम करना छोड़कर दूसरों को इस काम पर क्यों लगाए? पर कुछ साल बाद उनका व्यवासय पिछड़ने लगा, क्योंकि उसके क्षेत्र में नए व्यवसायी आने लगे थे, जिन्होंने इन्वेस्टमेंट करके बड़ी फैक्ट्रियां लगाईं। काम बढ़ने के साथ-साथ उन्होंने ज़्यादा कारीगरों को हायर किया। जिससे वो कम्पटीशन में उनसे कम कीमत पर अच्छी क्वालिटी उपलब्ध कराने लगे। और इसका परिणाम यह हुआ कि धीरे धीरे उनका कारोबार ठप्प हो गया।   

    वैसे भी उसूल यह कहता है कि किसी कारोबार में रात-दिन मेहनत करके आप ज़िंदगी अच्छी तरह से चलाने का इंतजाम तो कर सकते हैं पर अमीर नहीं बन सकते हैं!

    अमीर हालांकि अरबी का लफ्ज़ है, जिसका मतलब लीडर होता है, पर अगर पैसे वाले अमीर की बात की जाए तो वो वही व्यक्ति बनता है जो कारोबार को कम से कम मेहनत से मैनेज करना सीख लेता है। जब एक कारोबार कुछ चल जाए तो खर्च निकालने के बाद बचे मुनाफे से बाकी के कारोबारों की तरफ रुख करना ही अमीर बनने का सीधा रास्ता है। एक कमाई से कभी कोई अमीर नहीं बनता है!

    और जो यह कहते कि अमीर गलत धंधे करके ही बनते हैं, वो आपको सिर्फ झूठ का सहारा लेकर बेवकूफ ही नहीं बना रहा होता है, बल्कि आपको डिमोटिवेट करके बहुत बड़ा गुनाह भी कर रहे होते हैं। याद रखिए कि पैसे कमाना शैतानी काम नहीं है बल्कि यह एक धार्मिक और समाज का भला करने वाला काम है, बशर्ते सही उसूलों से किया जाए!

    इसलिए अमीर या फिर बिलिनियर बनने का लक्ष्य रखिए, खूब सारा पैसा कमाना बेहद ज़रूरी है और उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है कि ईश्वर जो हमें सामाजिक नेटवर्क के ज़रिए दे रहा है उसे समाज को वापिस भी किया जाए। यानी कौम, समाज, देश और इंसानियत के फायदे के लिए अपनी कमाई में से परिवार पर खर्च करने के बाद बचे पैसे का आधा हिस्सा खर्च किया जाए। यह पैसा आप शिक्षा, रिसर्च, भोजन, इलाज और लोगों को कारोबार कराने की व्यवस्था के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।

    विश्वास कीजिए, आप जितना इंसानियत को फायदा पहुंचाने के लिए खर्च करेंगे आपका रब उसका कई गुना आपको वापिस करेगा। मतलब यह भी एक तरह से ईश्वर के साथ कारोबार हो गया... 😊

    और वो बेहतरीन नफा देने वाला है!

    Read More...

    मुस्लिम प्रजनन दर और उसकी आड़ में जनसंख्या वृद्धि के हौव्वे की राजनीति

  • by
  • Shah Nawaz
  • भारत में मुस्लिम प्रजनन दर 1992 में 4.4 थी जो कि 2019 में गिरकर 2.4 हो गई। वहीं हिन्दू प्रजनन दर जो कि 1992 में 3.3 थी वो 2019 में गिरकर 1.9 हो गई है। अगर सरकार के इस आंकड़ें को देंखेंगे तो मुस्लिम प्रजनन दर में जितनी तेज़ी से गिरावट आई है, उतनी किसी और समाज में नहीं आई है।

    अभी सभी समुदायों की प्रजनन दर तक़रीबन 2 के आसपास है। जिसका अर्थ है 2 लोगों (पति-पत्नि) के द्वारा जन्म दिए बच्चों की संख्या 2 के आसपास है और इसका अर्थ है कि भविष्य में जल्दी ही ऐसा समय आने वाला जबकि देश की जनसख्या बढ़ने की जगह घटने लग जाएगी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हर समुदाय में शिक्षा का स्तर बढ़ा है। आप शिक्षा के असर का इससे अंदाज़ा लगाइये कि शहरों में प्रजनन दर 1.6 रह गई है, जबकि गांवों में यह 2.1 प्रतिशत है। अगर राज्यों की बात करें तो बिहार 3, मेघालय में 2.9, यूपी में 2.4, झारखंड 2.3 और मणिपुर में 2.2 है।

    और अगर देखा जाए तो हिन्दू समुदाय की प्रजनन दर (1.9), बौद्ध (1.4), जैन (1.6) और सिख (1.6) समुदाय से ज़्यादा है तो क्या इन समुदायों को हिन्दू समुदाय के विरुद्ध झंडा उठाना चाहिए? 
    जन्मदर का ताल्लुक शिक्षा के स्तर से होता है, पर बेशर्मी यह है कि भाजपा इसके हल अर्थात शिक्षा के स्तर को बढ़ाने पर मंथन करने की जगह इसे भी नफरत का हथियार बनाती है।

    Read More...

    Ghazal: जहाँ के दर्द में डूबी है शायरी अपनी

  • by
  • Shah Nawaz
  • वो जिसकी याद में कटती है ज़िन्दगी अपनी उसी के साथ में शामिल है हर खुशी अपनी वो लिखना चाहें तो लिक्खे तेरी अदाओं पे जहाँ के दर्द में डूबी है शायरी अपनी नया है दौर ये ज़ालिम बड़ा ज़माना है ज़रा जतन से छुपाना तू मुफलिसी अपनी मिरे कदम से मिलाया है हर कदम उसने हर इक सफर में हुई है यूँ रहबरी अपनी

    - शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल'

    Read More...

    कोरोना मामलों में मीडिया का धार्मिक दुष्प्रचार

  • by
  • Shah Nawaz
  • 24 मार्च तक बहुत सारे मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों में लोग सरकारी प्रतिबंधों के बावजूद आ-जा रहे थे और इस कारण लॉक डाउन होने पर फंस गए। क्योंकि तब तक सरकार ही गंभीर नहीं थी, प्रदर्शन चल रहे थे, सामाजिक-राजनैतिक समारोह / पार्टियाँ आयोजित हो रही थीं, सरकारें गिर रही, बन रही थीं, संसद सत्र चल रहा था। सरकारी गंभीरता अचानक 20-21 मार्च से नज़र आनी शुरू हुई।

    हजूर साहिब, महाराष्ट्र में फंसे ऐसे ही तीर्थयात्री जब पिछले हफ्ते पंजाब वापिस लौटे तो 148 लोग कोरोना पॉजिटिव पाए गए। ऐसे ही कई और धार्मिक स्थलों में भी फंसे लोगों को निकालकर उनके शहरों में पहुंचाया गया है। कई धार्मिक/सामाजिक अनुष्ठानों में हज़ारों लोग इकट्ठा हुए। मध्य प्रदेश में अंतिम संस्कार में 1500 से ज़्यादा लोग जुटे, ऐसे ही महाराष्ट्र के एक मंदिर के कार्यक्रम में भी 1500 के करीब लोग इकट्ठे हुए, इन मामलों के कारण सैंकड़ों कोरोना पॉज़िटिव केस सामने आए।

    हालाँकि ऐसे मामलों में लापरवाही की जाँच की जाती है और जो ज़िम्मेदार निकलेगा उन्हें सज़ा भी मिलनी चाहिए। पर मरकज़ निज़ामुद्दीन के बहुचर्चित मामले में मीडिया के दुष्प्रचार ने जिन मरीज़ों से सहानुभति होनी चाहिए थी, उन्हें अपराधी ठहरा दिया और मीडिया के इस घृणित व्यवहार पर देश में कहीं कोई चर्चा नहीं हुई!

    जबकि मीडिया ने सरकार से कभीं सवाल नहीं किया कि जो लाखों लोग विदेशों से वापिस आए, उन्हें कोरोना टेस्ट किये बिना या फिर सरकारी क़वारन्टीन सेंटर्स में भेजने की जगह सीधे उनके घर क्यों जाने दिया गया? या फिर उनके घर को उसी समय रेड ज़ोन घोषित किया जाना चाहिए था। इस लापरवाही ने पूरे देश को लॉक डाउन की त्रासदी में धकेल दिया, तो फिर इसका ज़िम्मेदार कौन है? इसमें किसके खिलाफ केस होगा और किसे सज़ा मिलेगी?

    Read More...

    Popular Posts of the Months

     
    Copyright (c) 2010. प्रेमरस All Rights Reserved.