ला इलाहा और इल्लल्लाह का तात्पर्य

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  • Shah Nawaz
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  • कलमा की शुरुआत 'ला इलाहा' से होती है, मतलब कि नहीं है कोई उपास्य (जिसकी उपासना की जा सकती हो), जो कि किसी नास्तिक का भी कलमा होता है। फिर दूसरा पार्ट है 'इल्लल्लाह', जिसका मतलब है सिवाए अल्लाह/रब/ईश्वर/गॉड के... यह मेसेज दुनिया के हर दौर में, अलग-अलग भाषाओं, अलग-अलग देश/क्षेत्र में आए ईश दूतों ने इंसानों को दिया है। 


    इस कलमा/कथन का तात्पर्य ही यह है कि किसी नास्तिक या फिर आस्तिक के पुत्र/पुत्री तब तक धार्मिक नहीं है जब तक कि उसे अपने रब यानी creater में आस्था पैदा नहीं होती है। मतलब मुस्लिम के बच्चे मुस्लिम, हिंदू के बच्चे हिंदू, सिख के बच्चे सिख, ईसाई के बच्चे ईसाई, यहूदी के बच्चे यहूदी हरगिज़ नहीं हो सकते हैं जब तक कि उनके अंदर कलमें के पहले पार्ट के बाद वाली उत्सुकता पैदा नहीं हो और वो दूसरे पार्ट की खोजकर करके उसके ऊपर आस्था ना ले आए!


    मतलब उसे रिसर्च करनी चाहिए कि क्या उसका कोई रब है या नहीं और जब दिल इस बात पर विश्वास कर ले कि हां कोई उसका रब/creater है तब उसे अपने रब को खोजना चाहिए और जब उसकी खोज पूरी हो जाए तो अपनी जिंदगी उसकी मर्ज़ी से गुज़ारनी चाहिए।


    विश्वास कीजिए कि जिसने भी इस प्रोसेस को अपनाया उसकी मौत इससे पहले आ ही नहीं सकती है जब तक कि उसके रब की हकीकत साफ़ साफ़ उसके सामने ज़ाहिर नहीं हो जाए, क्योंकि फिर ज़िम्मेदारी आपकी नहीं आपके रब की है!


    पर यह प्रोसेस कोई धर्म का दुकानदार हमें नहीं बताएगा, क्योंकि फिर आपसी दुश्मनियां और धर्म की लड़ाइयां खत्म हो जाएंगी, मतलब उनकी दुकानदारी खत्म हो जाएगी। जिसके ज़रिए वो अपना पेट भरते हैं या फिर सत्ता चलाते हैं। वैसे सत्ता सिर्फ देश/राज्य की ही नहीं होती है, बल्कि घर की, मौहल्ले की, एरिया की, किसी ग्रुप की या फिर कौम की भी होती है।

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