क्योंकि अगर हम अपनी सोच के हिसाब से ही सबकुछ करने लग जाएँगे तो उनकी ज़िंदगी के कोई मायने नहीं रह जाएँगे जो कि हमारे फ़ैसले से प्रभावित हो रहे होंगे। भले ही हमारी कोशिश उन्हीं की ज़िंदगी सुधारने की ही क्यों ना हो…
इस बात को एक उदाहरण से समझने कि कोशिश करते हैं, अपनी ज़िंदगी में हम अगर घर के बेटे के तौर पर देखते हैं कि हमारी मां और हमारी पत्नी हमारी सोच के ख़िलाफ़ चल रही होती है। हमें लगता है कि माँ इस तरह चले और पत्नी उस तरह चले तो घर का माहौल ख़ुशगवार हो जाएगा। आपसी खींचतान ख़त्म हो जाएगी।
यहाँ हमारा मक़सद भी सही होता है, पर अगर हम अपनी सोच उनके ऊपर ज़बरदस्ती थोपते हैं, तो उनकी ज़िंदगी के मायने ख़त्म हो जाते हैं। उन दोनों का अपनी ज़िंदगी को अपने हिसाब से जीने का हक़ ख़त्म हो जाता है। हमारे ज़बरदस्ती कंट्रोल करने से झगड़े या फिर खींचतान तो ख़त्म हो सकती है, पर ज़िंदगी में जो लुत्फ़ आना चाहिए वो खो जाता है। क्योंकि इसके लिए उन दोनों को अपनी पर्सनेलिटी को ख़त्म करना पड़ता है। इंसान को फ़ितरत ही ऊपर वाले ने ऐसी बनाई है।
हालाँकि ऐसे में आप कुछ और भी कर सकते हैं, जैसे कि किचकिच से तंग आकर संयुक्त परिवार से विद्रोह करके अलग रह सकते हैं, पर इसमें भी आप एक ही पक्ष को खुश रख पाते हैं और दूसरे के साथ अन्याय करते हैं। और यह हमारा फ़र्ज़ है कि हम उनके साथ न्याय करें, जिनका हमारे ऊपर हक़ है!
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