तुझसे भी तो पर कोई रिश्ता नहीं
तिश्नगी तो है मयस्सर आपकी
जुस्तजू दिल में मगर रखता नहीं
साज़िशों से जिसकी हों ना यारियां
नफरतें इस दौर का तोहफा हुईं
बन गया है मुल्क का जो हुक्मरां
इश्क़ जिससे हो गया इक बार जो
फूल के जैसा ही है मासूम यह
खुद को हल्का रख गुनाहों से ज़रा
- शाहनवाज़ 'साहिल'
फ़िलबदीह-185(25-06-2016) साहित्य संगम में लिखी ग़ज़ल
मात्रा:- 2122 2122 212
बह्र :- बहरे रमल मुसद्दस महजूफ
अरकान :- फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन
काफ़िया :- बसता(आ स्वर)
रदीफ़ :- नही
क्वाफी (काफ़िया) के उदआहरण
तन्हा खिलता मिलता जलता सहता सस्ता मरता रिश्ता दिखता सकता चुभता मुड़ता कहता सस्ता रखता जँचता बेचा चलता जुड़ता रहता बचता भरता बहता लड़ता प्यारा धागा ज्यादा ताना साया भाया दाना वादा आदि । इसी प्रकार के अन्य शब्द जिनके अंत में " आ "स्वर आये।
इसी बह्र पर गीत गुनगुना कर देखें⬇
➡ आप के पहलू मे आकर रो दिए
➡ दिल के अरमा आंसुओं मे बह गए
बहुत सुन्दर ...
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुक्रिया कविता जी
Deleteआपको जन्मदिन की बहुत-बहुत हार्दिक शुभकामनाएं!
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