बड़ी हैरत की बात है कि जो लोग ऑफिसों में डाइवर्सिटी के नाम पर महिलाओं के अधिकारों पर ज़ोर देते हैं, बराबरी की बाते करते हैं, इसके नाम पर बड़ी-बड़ी नीतियां बनाते हैं, आखिर वही लोग महिलाओं की ही तरह सदियों से दबे-कुचले और सामाजिक पिछड़ेपन का दंश झेल रहे लोगों को आरक्षण दिए जाने के खिलाफ क्यों हो जाते हैं?
क्या ऑफिसों में महिलाओं को नौकरी और सम्मान की व्यवस्था भी उसी तरह की कोशिश नहीं है जैसी कोशिश सदियों से सामाजिक दुर्व्यवहार झेल रही क़ौमों को बराबरी पर लाने के लिए नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के ज़रिये की जाती है? अगर हाँ, तो फिर यह दोहरा रवैया क्यों? ऑफिसों में चल रही डाइवर्सिटी की कोशिशों का दायरा बढ़ाए जाने की ज़रूरत है। क्यों ना 'लैंगिक बराबरी' के साथ-साथ अब इसमें 'सामाजिक बराबरी' को भी शामिल किया जाए? जिस तरह महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार की कोशिशें की जा रही हैं, ऑफिसों में ज़्यादा-ज़यदा से महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जा रही है, क्या कार्यालयों में उसी तरह की कोशिशें सामाजिक भेदभाव झेल रही क़ौमों के साथ भी नहीं की जानी चाहिए? बल्कि मेरे विचार से तो इस मुहीम को समाज में भी आम करने और इसपर युद्धस्तर पर काम करने की ज़रूरत है।
सदियों से भेदभाव का दंश झेल रहे एक इतने बड़े वर्ग को बराबर ला खड़ा करने के लिए आज देश में एक बड़े सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत है। देश के लिए इससे बड़ी त्रासदी कुछ और हो ही नहीं सकती है कि इस युग में भी हम यह देखने के लिए अभिशप्त हैं कि कुछ लोगों को केवल इसलिए साथ बैठने, साथ खाने, साथ पढ़ने, साथ खेलने, धार्मिक स्थलों में घुसने यहाँ तक कि कुओं से पानी लेने की इजाज़त नहीं है क्योंकि वह ऐसी जाती, समूह या धर्म से आते हैं जिन्हे समाज में हीन समझा जाता है।
सदियों से भेदभाव का दंश झेल रहे एक इतने बड़े वर्ग को बराबर ला खड़ा करने के लिए आज देश में एक बड़े सामाजिक आंदोलन की ज़रूरत है। देश के लिए इससे बड़ी त्रासदी कुछ और हो ही नहीं सकती है कि इस युग में भी हम यह देखने के लिए अभिशप्त हैं कि कुछ लोगों को केवल इसलिए साथ बैठने, साथ खाने, साथ पढ़ने, साथ खेलने, धार्मिक स्थलों में घुसने यहाँ तक कि कुओं से पानी लेने की इजाज़त नहीं है क्योंकि वह ऐसी जाती, समूह या धर्म से आते हैं जिन्हे समाज में हीन समझा जाता है।
हमें एक ऐसा समाज बनाने की ज़रूरत है जहाँ रोटी और बेटी के रिश्ते बनने में ऊंच-नीच की सोच आड़े ना आए। जहाँ व्यापार, नौकरियों और मेलजोल में किसी को छोटा समझकर भेदभाव ना हो। बल्कि काबिलियत के बल पर फैसले होने लगें और उसके लिए सबसे पहली और सबसे ज़रूरी बात सबको सामाजिक बराबरी पर ला खड़ा करने की है। वर्ना जिस तेज़ी से सामाजिक कट्टरता और वर्गीय नफरत बढ़ रही है उसमें और भी तेज़ी आना तय है।
देश को तरक्की की राह पर ले जाना है तो हमें आज ही कोशिश करनी पड़ेगी कि हमारे अंदर से सामाजिक और धार्मिक भेदभाव समाप्त हो। जब तक हमारे अंदर भेदभाव रहेगा तब तक सहिष्णुता, संवेदनशीलता आ ही नहीं सकती और हम जब तक संवेदनहीन हैं तब तक सिविलाइज़्ड या सभ्य नहीं कहलाए जा सकते हैं।
आज हर हिंदुस्तानी चाहता है कि हम फिर से 'विश्वगुरु' बन जाएं। जबकि हमें आज यह समझना पड़ेगा कि विश्वगुरु किसी पदवी का नाम नहीं है, बल्कि सारे विश्व को सही राह दिखाने के लिए हम तब ही तैयार माने जा सकते हैं जबकि सबसे पहले हम स्वयं इसके लायक बन पाएं। हक़ीक़त यह है कि बदलाव तो हमारे अंदर के बदलाव आने से ही आ सकता है। वर्ना पिछड़ने के लिए तैयार रहे, दुनिया हमसे आगे निकल रही है और निकलती जाएगी।
याद रखने की ज़रूरत है कि अगर हम नहीं सुधरे तो हमारे इस निष्कर्म की सज़ा हमारी नस्लों को भोगनी पड़ेगी और हमारी नस्लें हमें इस जुर्म के लिए कभी माफ़ नहीं करेंगी।
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