पाकिस्तान से बातचीत का विरोध की जगह स्वागत होना चाहिए, मगर यह भी हक़ीक़त है कि बिना किसी ठोस शुरुआत के सीधे-सीधे उनके प्रधानमंत्री को बुलाने से पब्लिसिटी के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा। अगर रिश्तों को ठीक करना है तो इसके लिए कोशिश दोनों तरफ से होनी चाहिए। आंखमूंद कर और एकदम से विश्वास नुक्सान दे सकता है, पुराना अनुभव भी इसका गवाह रहा है।
बल्कि संबंधों को बेहतर बनाने के लिए छोटे-छोटे निर्णयों के साथ वक़्त देना चाहिए। वक़्त इसलिए भी क्योंकि पाकिस्तान में सारी ताक़त सरकार के पास नहीं है। यह एक हकीक़त है कि वहां की सरकार चाह कर भी सबकुछ नहीं कर सकती। हमारे लिए यह याद रखना अत्यंत आवश्यक है कि ग्राउंड रिएलिटीज़ पर काम किये बिना करे गए इसी तरह के प्रयास पर वाजपेयी जी को भी धोखा खाना पड़ा था। और उसकी भरपाई के लिए कारगिल युद्ध में हमारे सैनिकों को जान गंवानी पड़ी थी।
बल्कि मेरा यह मानना है कि सम्बन्धो के विस्तार के लिए सबसे पहले दोनों तरफ के सैनिक-असैनिक बंदियों को रिहा करने, व्यापार को आसान बनाने और एक दूसरे देश में कारोबारियों और आम नागरिकों की आवाजाही को आसान बनाने जैसे कदम उठाए जाने चाहिए। सबसे ज़रूरी है कि अच्छे संबंधों के लिए दोनों देशों की जनता तैयार हो और इसके लिए परस्पर विश्वास का बहाल होना आवश्यक है। बल्कि मेरा मानना है कि सम्बन्धो की बहाली तभी संभव है, जबकि इसके लिए जनता की बीच में से आवाज़ उठे!
पाकिस्तान से संबंधों पर मनमोहन सरकार की नीति बेहतरीन थी, हालंकि उनकी सरकार ने भाजपा के ज़बरदस्त दबाव के कारण इस पर कुछ ज़्यादा ही सुस्ती से काम किया। कम से कम भाजपा सरकार के पास बिना किसी दबाव के काम करने का एक अच्छा मौका है और नरेन्द्र मोदी को इसका फायदा उठाना चाहिए।
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