क्या तुम उसे जानते हो जो दीन को झुठलाता है? वही तो है जो (खुद) अनाथ को धक्का देता है और (दूसरों को) मोहताज के खिलाने पर उकसाता भी नहीं है।
क़ुरआन की उपरोक्त आयत में हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी जीने के तरीके को 'नमाज़' (पूजा पद्धती) बताया है, और यह कि इसमें दो बातें सामने आती हैं... सबसे पहले तो यह कि खुद अनाथों / मोहताजों से मुहब्बत करनी है, उनकी मदद करनी है और केवल इतना ही नहीं बल्कि दूसरों को समझा-बुझा कर इसके लिए राज़ी करना भी हमारी ज़िम्मेदारी है...
और दूसरी बात यह है कि दिखावे के लिए किया गया काम धार्मिक नहीं हो सकता... मतलब यह कि अपने 'नाम' के लिए उपरोक्त कार्य नहीं करना है, अगर किसी की मदद करें तो एकदम चुपचाप हो कर, जैसा कि कहावत है कि दाएं हाथ से दें तो बाएं को पता भी नहीं चले।
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