यजीद अपनी बदबख्तियों पर दीन की मुहर लगाना चाहता था और इसीलिए वोह चाहता था कि हज़रत मुहम्मद मुस्तफा के प्यारे नवासे हुसैन (र.) उसकी बातों पर मुहर लगाएं, मतलब कि उसके हाथ पर बै'त करें। मगर हुसैन (र.) ने खुद अपने आप और अहल-ओ-अयाल का शहीद हो जाना पसंद किया लेकिन दीन को मिटते देखना गंवारा नहीं किया।
जिन लोगो ने मुहर्रम की दसवीं तारीख मतलब आज ही के दिन हज़रत हुसैन (रज़ी.) और उनके साथियों को इस कदर वहशियाना तरीके से शहीद किया वोह लोग यजीद और यजीदी सोच के पेरुकार थे... और उनका मक़सद किसी भी क़ीमत पर सत्ता पर कब्ज़ा था...
और यह सोच आज भी जिंदा है, चाहे वोह सत्ता मुल्कों की हो या समूहों की... और ऐसी सोच के खिलाफ आवाज़ बुलंद करना और मज़हब के नाम पर हो रही बदबख्तियों के खिलाफ आवाज़ उठाना ही शहादत-ए-हुसैन का पैग़ाम है।
जो आपने कहा है वही मैं भी सोच रहा था. क्या यह मह्ज इत्तफाक है?
ReplyDeleteजानकर अच्छा लगा कि आप भी यही सोच रहे थे...
Deleteयजीदी सोंच के लोग आज भी हैं , उन्हें हराना होगा !!
ReplyDeleteसतीश भाई, यजीदी सोच के लोग हर युग में रहें हैं और हुसैनी सोच से हारते रहे हैं...
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