गुनाहों में मुब्तला रहने का मतलब है कि रब की नाराज़गी का खौफ दिल में नहीं है... और यह इसलिए है क्योंकि उससे इश्क़ का सुरूर अभी दिल पर छाया ही नहीं... महबूब से इश्क़ का अभी बस दावा है, दर-हकीक़त दावे से कोसो दूरी है!
उससे मिलन की चाहते तो हैं, लेकिन अपने फे`ल से लगता ही नहीं कि उसे भी अपने इश्क में मुब्तला करना चाहते हैं! वर्ना उसकी नाराजगी की ता`ब दिल में लाना मुमकिन हो सकता था क्या?
महबूब की नाराज़गी भी कोई दीवाना कभी सहन कर सकता है भला!!!
बल्कि "इश्क़" वोह शय है कि जिससे होता है, आशिक तो उसे सोते-जागते याद करने में ही लुत्फ़-अन्दोज़ होता रहता है। और जिसे मुझसे इश्क हो, फिर अगर मैं उससे मिलन की आस के आनंद में वशीभूत होता हूँ तो क्या वह मुझसे राज़ी नहीं होगा?
Keywords: ishqe-haqiqi, ishq-ai-haqiki, inner-love, , अध्यात्म
सारगर्भित लेख...
ReplyDeleteकुँवर जी,
धन्यवाद भाई!
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन खुद को बचाएँ हीट स्ट्रोक से - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDelete"महबूब से इश्क़ का अभी बस दावा है, दर-हकीक़त दावे से कोसो दूरी है!" सौ फ़ीसदी सच ...इश्क पर लिखना भी आसान नहीं लेकिन आपकी छोटी सी पोस्ट जैसे गागर में सागर हो.... शुक्रिया ब्लॉग बुलेटिन का जिसकी बदौलत इधर आ सके...
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteभाई श्री शाहनवाज जी.
ReplyDeleteसर्वप्रथम तो आपको धन्यवाद मेरी समस्या के समयानुसार निवारण के लिये. फिर इस बात के प्रति मेरी ओर से क्षमा कि दुनियादारी के दूसरे-तीसरे झमेलों में उलझने के कारण मैं आपसे अब तक पुनः सम्पर्क नहीं कर पाया । वाकई कब हम बिल्कुल फ्री मूड में आ जाते हैं और कब व्यस्तता के चक्र में चकरघिन्नी बन जाते हैं कुछ कहा ही नहीं जा सकता । एक बार फिर कृपया मेरी ओर से धन्यवाद स्वीकार करें । आपका साथी...
बात जब इश्क और उसकी हकीकत की हो तो यह बात हमेशा पूरा वजन रखती है कि "ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे, इक आग का दरीया है और डूब के जाना है"
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