समाज में महिलाओं के पुरुषों पर अहसान को उनका फ़र्ज़ (ड्यूटी) और अपने फ़र्ज़ पूरे करने को उनपर एहसान बताया जाता है।
पत्नी का पति के लिए खाना बनाना, घर का ख्याल रखना, बच्चों की परवरिश करना इस्लाम में फ़र्ज़ नहीं है, बल्कि पति पर एहसान है (अगर वोह करना चाहे तो) । अगर पत्नी बच्चे को दूध ना पिलाना चाहे तो दूध पिलाने वाली का इंतजाम करना पति के ऊपर फ़र्ज़ है। और एहसान का बदला एहसान से या फिर कम-अज़-कम हुस्न-सलूक होना चाहिए। लेकिन इसको पत्नी की ड्यूटी बना दिया गया, जिससे कि वोह घर की चार-दिवारी में टिकी रहे।
यहाँ तक कि माता-पिता की देखभाल करना, उनके खाने-पीने का इंतजाम करना पति पर फ़र्ज़ बनाया गया है, लेकिन आज उसे पत्नी का फ़र्ज़ बना दिया गया है। ऊपर से किसी भी महिला के अपने माता-पिता के लिए जो फ़र्ज़ हैं उन्हें गुनाह समझा जाने लगा है। कोई महिला अगर अपने माता-पिता की देखभाल करती है, आर्थिक मदद करती है तो उसे बुरा समझा जाता है। अपनी मर्जी चलाई जा सकें, इसलिए अधर्म को धर्म का जामा पहनाने की कोशिश की जाती है।
अगर समाज में सभी रिश्ते एक-दूसरे के हक को समझे, दूसरों के अहसान को अहमियत दें रिश्तों में कडवाहट नहीं बल्कि मिठास जागेगी। बहु को अहसास होना चाहिए की उसके सास-ससुर के उस पर कितने अहसान हैं, वहीँ सास-ससुर को अपनी बहु के एहसानों पर मुहब्बत की नज़र रखनी चहिये। जैसे पत्नी पति के रिश्तों को अहमियत देती है, ठीक उसी तरह पति को भी अपनी पत्नी के रिश्तों को उतनी ही अहमियत देनी चहिये।
एक दूसरे पर अहसान दर-असल एक दूसरे से मुहब्बत की अलामत है।
(मेरे द्वारा की गई टिपण्णी का सार)
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति आज के चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteजब औरों के दृष्टिकोण से देखते हैं तो वह दृष्टि आ जाती है जिसमें सारा विश्व प्रेम से रह सकता है।
ReplyDelete.एक एक बात सही कही है आपने .सराहनीय अभिव्यक्ति सही आज़ादी की इनमे थोड़ी अक्ल भर दे . आप भी जानें हमारे संविधान के अनुसार कैग [विनोद राय] मुख्य निर्वाचन आयुक्त [टी.एन.शेषन] नहीं हो सकते
ReplyDelete.
...bahut barhiya likha hai aapne!
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