ईरान में रहने वाली अमीना बहरामी नामक युवती ने कोर्ट के द्वारा अदालत में 7 साल लम्बी जद्दोजहद के बाद इन्साफ मिलने पर मुजरिम माजिद की आँखों में तेज़ाब डालने की सज़ा को बख्श कर उसकी हैवानियत के मुंह पर तमाचा मारा है. हालाँकि माजिद को सामान्य कानून के अनुसार 10 वर्ष की सज़ा भी हुई है. अपने इस फैसले से अमीना ने दिखा दिया कि कमज़ोर दिखने वाली औरत कमज़ोर होती नहीं, बल्कि अपने आप को मज़बूत समझने वाले मर्दों के मुकाबले ज़हनी तौर पर कई गुना मज़बूत होती है.
वर्ष 2004 में माजिद ने अमीना के मुंह पर केवल इसलिए तेज़ाब फेंक दिया था क्योंकि अमीना ने उसके शादी के प्रस्ताव को निरस्त कर दिया था. अमीना ने अपने चेहरे को ठीक करने के लिए दुनिया के कई मुल्कों के चिकित्सकों से संपर्क किया, लेकिन सभी जगह से उसे निराशा ही हाथ लगी थी. उस एक लम्हे ने अमीना की ज़िन्दगी को नरक बना दिया था, जब वह घर से बाहर निकलती थी तो लोग उसे देखकर डर जाते थे. वह एक-एक लम्हा उसी दुःख के साथ जीने को मजबूर थी, अमीना ने फैसला किया अपने ऊपर हुए ज़ुल्म का बदला लेने का. उसने अदालत से गुहार लगाईं कि जिसने उसे पल-पल मरने पर मजबूर किया उसको वैसे ही सजा दी जाए. ईरान की अदालत ने उसकी बात को मानते हुए माजिद को दोनों आँखों में एक-एक बूँद तेज़ाब डालने का हुक्म दिया तथा इस सज़ा को वहां की सर्वोच्च अदालत ने भी बरकरार रखा.
लेकिन इस फैसले के बाद अमीना ने विरोध करने वालों पर तथा माजिद जैसी हैवानियत वाली मानसिकता रखने वालों पर उसकी सज़ा को बख्श कर ऐसा खामोश तमाचा जड़ दिया, जिसकी गूँज काफी दिनों तक महसूस होती रहेगी. उसने कहा कि बदला लेना उसका मकसद नहीं था और ना ही कभी उसकी मंशा माजिद की आंखे छीनने की रही थी. बल्कि वह चाहती थी कि माजिद को यह सज़ा सुनाई जाए, ताकि उसको भी उस दुःख का एहसास हो जो कि उसकी ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुका है.
कुछ लोगो ने इस सजा को क्रूरता का दर्जा दिया था, मैं उन लोगो से मालूम करना चाहता हूँ कि आखिर सजा को क्षमा अथवा कम करने का नैतिक हक भुक्त-भोगी के सिवा किसी और को कैसे हो सकता है? क्या भुक्त-भोगी के सिवा कोई और इंसान इस जैसी अनेकों महिलाओं के एक-एक पल को महसूस कर सकता है? इसलिए मेरे विचार से तो अदालत का कार्य ऐसे खौफनाक जुर्म की वैसी ही सज़ा देना होना चाहिए.
अदालत ने हक में फैसला सुनाकर अमीना को न्याय बक्शा...अमीना ने मजीद को बक्श कर इन्सानियत को जिन्दा रखा...निश्चित ही यह अमीना को ही तय करने का हक है..जिसने पल पल उस दर्द को अहसासा है.
ReplyDeleteक्या कहूं मै शब्द नही है ऐसी दरिया दिली और ऐसी रहम संसार के किसी राजा बादशाह ने नही की होगी कर्ण से बड़ा दानवीर मिल गया मुझे या कम से कम बराबर का तो है ही ।
ReplyDeleteहालाँकि -एन आई फॉर एन आई --का सिद्धांत सही नहीं लगता । लेकिन अपराधी को यूँ मांफ करने से इंसानियत का कोई भला नहीं होने वाला । उसे तो सजा तो मिलनी ही चाहिए , भले ही किसी और रूप में हो । वैसे भी कानून किसी की मर्ज़ी का मोहताज़ नहीं होता ।
ReplyDeleteइसको कहते है "इंसानियत". क्षमादान मगर सामने वाले व्यक्ति को उसकी गलती का अहसास करवाने के बाद ही क्षमा करना चाहिए. यहीं काम अमीना ने मजीद के साथ किया. यह कहाँ की बात हुई कि-किसी को जबरदस्ती हासिल करों, नहीं तो उसको तेज़ाब डालकर नष्ट कर दो. यह प्यार नहीं वासना है. प्यार त्याग और बलिदान मांगता है.
ReplyDeleteभारत देश में ऐसे मुकद्दमों का फैसला होता ही नहीं है, क्योंकि यहाँ पर सब कुछ पैसों के बल पर न्याय खरीदा और बेचा जाता हैं.
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इस महिला ने इंसानियत का नाम रोशन किया है शाहनवाज़ भाई ! ऐसे लोगों की बहुत आवश्यकता है आज के समय में !
ReplyDeleteशुभकामनायें आपको !
दर्दनाक घटनाओं में भी इन्सानियत जीवित है।
ReplyDeleteमेरे विचार में जिस के प्रति अपराध किया गया है उसे माफ करने का हक तो होना चाहिए। लेकिन वह तो केवल अपने प्रति किए गए अपराध को ही माफ कर सकता है। यह अपराध जो किया गया है क्या वह मात्र एक व्यक्ति के प्रति अपराध है?
ReplyDeleteमेरे विचार से यह न केवल अमीना के प्रति अपराध था अपितु सम्पूर्ण मानवता के प्रति अपराध था। उसे केवल अमीना द्वारा बख्श देने का अधिकार नहीं होना चाहिए, अपितु अमीना के द्वारा बख्श दिए जाने के बाद भी अदालत और जूरी को विचार करना चाहिए कि अपराधी को अब क्या सजा दी जाए।
डॉ दराल साहब और दिनेशराय द्विवेदी जी,
ReplyDeleteआपकी बात सही है, इस केस में माजिद को सामान्य कानूनों के अंतर्गत 10 वर्ष की सजा भी हुई है.
अमीना बहरामी ने माजिद की बेरहमी को ऐसा तमाचा जड़ा है कि वो बाक़ी ज़िंदगी के हर लम्हे अपने गुनाह पर पछताएगा...
ReplyDeleteअदालत ने फिर भी माजिद को दस साल की सज़ा देकर इनसाफ़ किया...
वैसे भी आंख के बदले आंख का क़ानून ही चलने लगे तो एक दिन ये सारी दुनिया अंधों की बस्ती हो जाएगी...
जय हिंद...
अच्छी पोस्ट शाहनवाज़ भाई. इस्माल का कानून है कि जो तुम्हारा निकसान हुआ वही नुकसान सामने वाले का तुम कर सकते हो लेकिन माफ़ कर दो तो अच्छा है. अमीना ने वही किया.
ReplyDeleteदर्दनाक घटनाओं में भी इन्सानियत जीवित है।
ReplyDeleteसही कहा आपने ...ऐसे वहशियाना जुर्म की सजा भी बिलकुल ठीक सुनाई गयी
ReplyDeleteअमीना ने तो अपनी इंसानियत का उदाहरण दे दिया अब इन हैवानों को इससे क्या नसीहत मिलती है ....यह देखने वाली बात है
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