माता-पिता हमारी सामाजिक व्यवस्था के स्तंभ हैं

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  • Shah Nawaz
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  • माता-पिता दुनिया की सबसे बड़ी नेमतों में से एक हैं, बहुत खुशनसीब हैं वह जिनकों यह दोनों अथवा इनमें से किसी एक का भी सानिध्य प्राप्त है। हमारे माता-पिता हमारी सामाजिक व्यवस्था के स्तंभ हैं, पर अफ़सोस आज यह स्तंभ गिरते जा रहे हैं।

    वह उस समय हमारी हर ज़रूरत का ध्यान रखते हैं, जबकि हमें इसकी सबसे ज्यादा ज़रूरत होती है, लेकिन जब उनको उसी स्नेह की आवश्यकता होती है तो हमारे हाथ पीछे हट जाते हैं। कहावत है कि दो माता-पिता मिलकर दस बच्चों को भी पाल सकते हैं, लेकिन दस बच्चे मिलकर भी दो माता-पिता को नहीं पाल सकते।

    मेरे घर में जब मेरी बिटिया 'ऐना' आई तब मैंने अपनी पत्नी के द्वारा रातों को उसकी देखभाल करते हुए देखकर याद किया कि मेरी माँ ने भी इसी तरह मेरी देखभाल की होगी, वोह भी उस ज़माने में जबकि आज की आधुनिक सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं थी। किस तरह जद्दो-जहद करके दिल्ली जैसे शहर में उन्होंने हमारे लिए ना केवल आशियाना बल्कि हर एक सुविधा का इंतजाम किया था, मेरे द्वारा फ़्लैट खरीदने पर माता-पिता की आँखों की ख़ुशी को याद करके आज भी खुश होता हूँ।

    लेकिन अफ़सोस आज दिन-प्रतिदिन वृद्ध आश्रमों की संख्या बढती जा रही है, उनमें भी अधिकतर वही लोग होतें हैं जिनके बेटे-बेटियां जिंदा और अच्छी-खासी माली हालत में होते हैं। अक्सर उम्र के इस पड़ाव पर पहुँच कर घर के बुज़ुर्ग अपने आप को अलग-थलग महसूस करने लगते हैं। संवेदनहीनता के इस दौर में अपने ही इनकी भावनाओं को समझने में नाकाम होने लगते हैं। मुझे आज भी याद है किस तरह मेरे नाना-नानी का रुआब घर पर था, उनकी हर बात को पूर्णत: महत्त्व मिलता था, लेकिन इस तरह का माहौल आज के दौर में विरले ही देखने को मिलता है। आज बुजुर्गों की बातों को अनुभव भरी सलाह नहीं बल्कि दकियानूसी समझा जाता है। उनकी सलाहों पर उनके साथ सलाह-मशविरे की जगह सिरे से ही नकार दिया जाता है।

    एक घटना याद आ गई, बात उस समय की है जब में दक्षिण कोरिया में था, हमें एक शिपमेंट भेजनी थी। उसके लिए जो कंटेनर बुलाया गया था, उसका ड्राइवर काफी उम्र का था। रास्ते में हमने उससे मालूम किया कि क्या आपके पुत्र-पुत्रियाँ नहीं हैं? उसने कहा कि उसके दो बेटे और एक बेटी है। तब मैंने मालूम किया कि फिर आप इस उम्र में इतनी मेहनत का काम क्यों करते हैं? आपके बच्चे आपको रोकते नहीं? तो उसने बताया कि उसके बेटे-बेटी अपने-अपने घर में रहते हैं और वह और उसकी पत्नी अपने घर का खर्च चलाने के लिए काम करते हैं। जब हमने उसे अपने वतन हिन्दुस्तान के बारे में बताया कि वहां पर आज भी बुज़ुर्ग मजबूरी में मेहनत नहीं करते हैं, तो उस बुज़ुर्ग की आँखों में आंसू भर गए। उसने कहा कि आपका समाज कितना अच्छा है, जहाँ बुजुर्गों का ध्यान रखने वाले घर पर मौजूद होते हैं।

    लेकिन आज के माहौल और दिन-प्रतिदिन गिरती मानवीय संवेदना को देखकर लगता है कि हमारे वतन में भी वोह दिन दूर नहीं जब बुजुर्गों की सुध लेने वाला कोई नहीं होगा! जबकि हर एक धर्म में बुजुर्गों से मुहब्बत और उनका ध्यान रखने की शिक्षाएं हैं, लेकिन बड़े-बड़े धार्मिक व्यक्ति भी इस ओर अक्सर बेरुखें ही हैं। क्योंकि उन्होंने धर्म को आत्मसात नहीं किया बल्कि केवल दिखावे के लिए ही उसका प्रयोग किया।

    धार्मिक बातें चाहे लोगो को उपदेश लगे या किसी की समझ में ना आएं, लेकिन मैं हमेशा उनको दूसरों तक पहुँचाने की कोशिश करता हूँ। क्योंकि मानता हूँ कि अगर इसी तरह बताता रहा तो कम से कम मैं तो अवश्य ही उनपर अमल करने वाला बन जाऊंगा।
    एक बार एक शख्स ने मुहम्मद (स.) से कहा कि मैं मैं हज करने के लिए जाना चाहता हूँ, लेकिन मेरे पास इतना सामर्थ्य नहीं है। आप (स.) ने मालूम किया कि क्या तुम्हारे घर में तुम्हारे माता-पिता दोनों अथवा उनमें से कोई एक जिंदा है, उस शख्स ने कहा कि माँ बाहयात हैं। आप (स.) ने फ़रमाया कि उनकी सेवा करो।

    वहीँ एक बार फ़रमाया कि अपनी माता अथवा पिता को मुहब्बत की नज़र से देखना ऐसे 'हज' के पुन्य जैसा है जो कि कुबूल हो गया हो।
    एक शख्स ने मालूम किया कि किसी के जीवन पर सबसे ज़्यादा मुहब्बत का अधिकार किसका है? आप (स.) ने फ़रमाया कि माँ का, उसने मालूम किया कि उसके बाद, तब आप (स.) ने फिर से फ़रमाया कि उसकी माँ का। उस शख्स ने तीसरी बार मालूम किया तब भी आप (स.) ने फ़रमाया कि उसकी माँ का और बताया कि चौथा नंबर पिता का है तथा उसके बाद अन्य लोगों का नंबर आता है।

    वहीँ एक बार फ़रमाया कि अपने माता-पिता के इस दुनिया से जाने के बाद उनसे मुहब्बत यह है कि उनके रिश्तेदार और दोस्तों के साथ भी वैसा ही सुलूक किया जाए जैसी मुहब्बत माता-पिता के साथ है। एक बहुत ही मशहूर वाकिये में आप (स.) ने फ़रमाया था कि माँ के क़दमों तले जन्नत है

    इसी प्रण के साथ बात को समाप्त करता हूँ, कि आजतक जितनी भी गलतियाँ, ज्यादतियां माँ-बाप के साथ की, भविष्य में उन गलतियों से दूरियां बनाने की पुरज़ोर कोशिश करूँगा। अगर इस प्रयास में सफल रहा तो अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली समझूंगा, वर्ना दिन तो गुज़र ही जाएँगे और मेरे बच्चे भी बड़े होंगे।

    - शाहनवाज़ सिद्दीकी

    14 comments:

    1. अफ़सोस की यह स्तंभ बड़ी तेज़ी से गिराएँ जा रहे हैं .................... लेकिन दुनियाँ अभी आप जैसे अनगिनत लोगों से भरी हुयी है जिन्हें इस अनमोल दौलत की क़द्र करनी आती है ................... दरअस्ल इन मामलों की जड़ में संयुक्त परिवारों का विघटन ही मुख्य कारक है, जो संस्कार संयुक्त परिवारों में मिल पातें है एकल परिवार वह संस्कार देने में असहाय नज़र आता है .................. मैं अपने आप को खुश किस्मत मानता हूँ जो पच्चीस परिजनों की परिधि में सुरक्षा प्राप्त कर रहां हूँ .

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    2. आईना दिखाता एक सशक्त आलेख्।

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    3. बहुत अच्छा लिखा है आपने...माँ-बाप की सेवा से बढ़ कर दूसरी कोई सेवा नहीं है लेकिन हम लोग अपने ही माँ बाप को बोझ मान ने लगे हैं...जो अत्यंत दुखद बात है...
      नीरज

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    4. कि‍सी बात को पूरी तरह समझना समय देकर...बहुत जरूरी होता है। जि‍न्‍दगी बात बात में ढेर सारा समय मांगती है। कई बातें हमारे सि‍र में दर्द करती रहती हैं... लेकि‍न कमाने की जरूरतें और फुर्सतों का अभाव हमें संकल्‍प कसमें वादे कर बात को टालने पर वि‍वश करते हैं,क्‍या ऐसा नहीं है?

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    5. अब तो हमारे लिए ओल्ड एज होम है भैया :)

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    6. समाज के सभी उम्र व वर्ग के पाठक समुदाय के लिये विचारणीय...

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    7. माता पिता की सेवा से बड़ा धर्म नहीं है।

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    8. काश सभी अपने बुजुर्ग माँ-बाप के प्रति हमेशा नेक ख़यालात रख पाते!
      बहुत बढ़िया सार्थक प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार!

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    9. एक बढ़िया लेख़.

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    10. आज की पोस्ट बेहतरीन पोस्ट मानी जानी चाहिए ! आपका यह नजरिया , आपको अपने परिवार में, बहुत ऊंची जगह दिलाएगा ! मेरा यह मानना है कि जो हम करते हैं हमारे बच्चे वाही आसानी से सीखते हैं ! अच्छे संस्कार समय के साथ उसका फल देते हैं !
      आभार आपका इस बेहतरीन पोस्ट के लिए शाहनवाज़ भाई !

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    11. इसमें तो कोई दो-राय हो ही नहीं सकती।

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    12. सत्य तो हर शब्द है पर बड़े शहरों और छोटे परिवारों को ऐसे चक्रव्यूह में फंसे हैं आज के नौजवान कि सब कुछ गर्त की ओर जाता हुआ नज़र आ रहा है..
      मैंने इसी विषय पे एक लघु कथा लिखी थी "दर्द-निवारक".. समय मिले तो पढ़िएगा..

      परवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
      आभार

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    13. बिकुल सही कहा आप ने माँ बाप की जगह जीवन में कोई नहीं ले सकता है और उनकी देखभाल करना हमारी पहली जिम्मेदारी है पर बच्चे जिम्मेदार बने इसके लिए माँ बाप को ही पहला कदम उठाना पड़ेगा जब आप समय रहते बच्चो को अच्छी सीख औपचरिक रूप से नहीं देंगे और उसे खुद ही सब कुछ खुस से सिखाने के लिए छोड़ देंगे या स्वयं वो काम करके बच्चो के सामने अच्छे उदाहरण नहीं रखेंगे तो बच्चे क्या सीखेंगे | आज कल माँ बाप खुद बच्चो को ज़माने के साथ चलने की सिखा देने के नाम पर गलत बाते सिखते देर नहीं करते वही गलत बाते उन्हें अपने ऊपर लागु होने पर बुरा लगता है |

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