अक्सर गुजरात दंगों की बात गोधरा काण्ड पर आकर रुक जाती है और यह दलील दी जाती है कि गुजरात दंगे गोधरा काण्ड की क्रिया की प्रतिक्रिया थे। या फिर यह मालूम किया जाता है कि आप गुजरात पर तो बोल रहे हैं, पर गोधरा कांड पर आपके क्या विचार हैं? बात चाहे गोधरा काण्ड, गुजरात दंगे, या फिर भारत अथवा विश्व की किसी भी घटना की हो, किसी भी हत्या की वारदात का बदला हत्यारों से लेना ही इन्साफ है। बेगुनाहों का कत्लों-आम या आतंकित करने को किसी भी कारण से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है।
किसी एक समुदाय से सम्बंधित गुनाहगारों का बदला पूरे समुदाय से लिए जाने की सोच समाज में आम है और लोग इसे जायज़ ठहराते हुए आसानी से नज़र आ जाएँगे। वहीँ अक्सर लोग आरोपी को खुद सजा देने के फ़िल्मी तरीके को भी सही ठहराते देखे जा सकते हैं और यही सोच आतंकवादी मानसिकता के फलने-फूलने में भी सहायक होती हैं। इसमें किसी की भी दो राय नहीं हो सकती है कि सज़ा देने का हक केवल नयायालय को होता है और वह भी पूरी तरह न्यायिक प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद।
अगर कोई भी मुसलमान इस बात का विरोध करता है तो उसे इस्लामिक उसूल पता ही नहीं है, वह खामखा ही अपने आप को मुसलमान समझने का गुमान रखे हुए है, यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि 'इंसाफ' इस्लाम की रूह है।
अगर न्यायिक प्रक्रिया में दोष है तो ख़ुद न्याय देने की कोशिश की जगह न्यायिक प्रक्रिया को बदलने की कवायद होनी चहिए, और लोग अगर जागरूक हो जाएँ तो लोकतंत्र में ऐसा करना बहुत मुश्किल भी नही है!
लेकिन इंसाफ का मतलब ऐसा इंसाफ नहीं जो कि मुझे या आपको पसंद हो! कुछ चाहते हैं कि जिन पर आरोप लगे हैं उनको सजा मिले, वहीँ कुछ चाहते हैं जिन पर आरोप लगे हैं वह बेक़सूर निकले। यह दोनों सिर्फ चाहत हैं और कुछ भी नहीं। जबकि इंसाफ का मतलब है जिसने गुनाह किया उन्हें सजा मिले, चाहे आपको बुरा लगे या मुझे बुरा लगे। हालाँकि अदालतों के काम करने का तरीका सबसे सही है, फिर भी यह ज़रूरी नहीं कि हर अदालत में इन्साफ ही हो! क्योंकि अदालते सत्य पर नहीं बल्कि सबूतों पर चलती हैं और यह ज़रूरी नहीं हुआ करता कि हर बात का सबूत मौजूद हो। इसलिए अगर किसी अदालात ने फैसला दिया है तो उसके ऊपर की अदालत में केस चलाया जाता है। अक्सर निचली अदालतों के गुनाहगार उपरी अदालतों से बरी हो जाते हैं। कई बार उन्हें साजिशन फंसाया जाता है और कई बार अलग-अलग कारणों से पूरा इन्साफ नहीं हो पाता है। इसके उल्टा भी होता है, जो बच गए थे, उन्हें उपर की अदालत सजा देती है।
जब भी गुजरात दंगो में इन्साफ की बात की जाती है तो सवाल होता है कि गोधरा दंगो में इन्साफ की बात क्यों नहीं की जाती। या फिर गोधरा कांड के आरोपियों को सज़ा मिलने पर सवाल उठता है कि गुजरात दंगों के आरोपियों को सज़ा कब मिलेगी? लोग अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक होने के नाते इंसाफ ना मिलने की बात करते हैं, हर इक अपने-अपने इंसाफ के लिए आवाज़ बुलंद करता दिखाई देता है।
हिन्दू समुदाय के लोग गोधरा के लिए लड़ते हैं और मुसलमान समुदाय गुजरात दंगो के लिए, इसके अलवा और भी कई अलग-अलग लड़ाईयाँ चल रही हैं। सवाल यह है कि आखिर यह लड़ाई इन्साफ के लिए कब लड़ी जाएगी? कब हम सब कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर एक भारत वासी के दुःख को अपना दुःख समझेंगे?
किसी एक समुदाय से सम्बंधित गुनाहगारों का बदला पूरे समुदाय से लिए जाने की सोच समाज में आम है और लोग इसे जायज़ ठहराते हुए आसानी से नज़र आ जाएँगे। वहीँ अक्सर लोग आरोपी को खुद सजा देने के फ़िल्मी तरीके को भी सही ठहराते देखे जा सकते हैं और यही सोच आतंकवादी मानसिकता के फलने-फूलने में भी सहायक होती हैं। इसमें किसी की भी दो राय नहीं हो सकती है कि सज़ा देने का हक केवल नयायालय को होता है और वह भी पूरी तरह न्यायिक प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद।
अगर कोई भी मुसलमान इस बात का विरोध करता है तो उसे इस्लामिक उसूल पता ही नहीं है, वह खामखा ही अपने आप को मुसलमान समझने का गुमान रखे हुए है, यह जान लेना अत्यंत आवश्यक है कि 'इंसाफ' इस्लाम की रूह है।
अगर न्यायिक प्रक्रिया में दोष है तो ख़ुद न्याय देने की कोशिश की जगह न्यायिक प्रक्रिया को बदलने की कवायद होनी चहिए, और लोग अगर जागरूक हो जाएँ तो लोकतंत्र में ऐसा करना बहुत मुश्किल भी नही है!
लेकिन इंसाफ का मतलब ऐसा इंसाफ नहीं जो कि मुझे या आपको पसंद हो! कुछ चाहते हैं कि जिन पर आरोप लगे हैं उनको सजा मिले, वहीँ कुछ चाहते हैं जिन पर आरोप लगे हैं वह बेक़सूर निकले। यह दोनों सिर्फ चाहत हैं और कुछ भी नहीं। जबकि इंसाफ का मतलब है जिसने गुनाह किया उन्हें सजा मिले, चाहे आपको बुरा लगे या मुझे बुरा लगे। हालाँकि अदालतों के काम करने का तरीका सबसे सही है, फिर भी यह ज़रूरी नहीं कि हर अदालत में इन्साफ ही हो! क्योंकि अदालते सत्य पर नहीं बल्कि सबूतों पर चलती हैं और यह ज़रूरी नहीं हुआ करता कि हर बात का सबूत मौजूद हो। इसलिए अगर किसी अदालात ने फैसला दिया है तो उसके ऊपर की अदालत में केस चलाया जाता है। अक्सर निचली अदालतों के गुनाहगार उपरी अदालतों से बरी हो जाते हैं। कई बार उन्हें साजिशन फंसाया जाता है और कई बार अलग-अलग कारणों से पूरा इन्साफ नहीं हो पाता है। इसके उल्टा भी होता है, जो बच गए थे, उन्हें उपर की अदालत सजा देती है।
जब भी गुजरात दंगो में इन्साफ की बात की जाती है तो सवाल होता है कि गोधरा दंगो में इन्साफ की बात क्यों नहीं की जाती। या फिर गोधरा कांड के आरोपियों को सज़ा मिलने पर सवाल उठता है कि गुजरात दंगों के आरोपियों को सज़ा कब मिलेगी? लोग अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक होने के नाते इंसाफ ना मिलने की बात करते हैं, हर इक अपने-अपने इंसाफ के लिए आवाज़ बुलंद करता दिखाई देता है।
हिन्दू समुदाय के लोग गोधरा के लिए लड़ते हैं और मुसलमान समुदाय गुजरात दंगो के लिए, इसके अलवा और भी कई अलग-अलग लड़ाईयाँ चल रही हैं। सवाल यह है कि आखिर यह लड़ाई इन्साफ के लिए कब लड़ी जाएगी? कब हम सब कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर एक भारत वासी के दुःख को अपना दुःख समझेंगे?
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कत्लों-आम और आतंक को किसी भी कारण से जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है।
ReplyDeleteअपसे बिलकुल सहमत हूँ। कत्ल हिन्दू सिख मुस्लिम किसी का हो किसी के दुआरा हो गलत है गलत रहेगा, मानवता की हत्या जैसा रहेगा। धन्यवाद।
जब तक इंसानी समाज हिन्दू, मुस्लिमों,जात-पाँत, अमीर-गरीब में बँटा रहेगा तब तक लोग अपनी लड़ाइयाँ लड़ते रहेंगे। जब तक इंसानियत सब से ऊपर स्थान नहीं पा जाएगी।
ReplyDeleteआखिर यह लड़ाई इन्साफ के लिए कब लड़ी जाएगी? कब हम सब कश्मीर से कन्याकुमारी तक हर एक भारतवासी के दुःख को अपना दुःख समझेंगे?
ReplyDelete...100 take ki baat...aapki baatoM se puree tarah sahamat hun.
मुझे लगता है की की सभी को इंसाफ मिलना चाहिए चाहे वो गोधरा कांड के पीड़ित हो या चाहे गुजरात दंगे के पीड़ित हो या १०८४ के सिंख दंगो के पीड़ित हो या कश्मीरी पंडितो के साथ हुआ अत्याचार हो सभी को न्याय मिलना चाहिए चाहे वो देश के किसी भी भाग से हो किसी भी धर्म या जाति से हो | किन्तु यहाँ दंगे भी सरकारों द्वारा प्रायोजित होते है वहा पर किसी इंसाफ की उम्मीद कैसे करे, जब देश का इतिहास ही धर्म के आधार पर हुए दंगो से भरा पड़ा है जहा दंगे भी वोट की राजनीती से हो जहा अल्पसंख्यको को जानबूझ कर वोट के लिए बहुसंख्यको से डराया जाये वहा पर किसी इंसाफ की उम्मीद कैसे करे |
ReplyDeleteन्याय यदि वास्तव में हो रहा है तो इसे वर्ग या जातिभैद से उपर दिखना ही चाहिये । फिर इसे किसी भी व्यक्ति या समुदाय की अपनी निजी लडाई कहने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी ।
ReplyDeleteजब तक इस देश में छद्म धर्मनिरपेक्षता रहेगी व ऐसे राजनैतिक दल रहेंगे तब तक ये लड़ाई कभी बंद नहीं होगी बल्कि बढ़ेगी |
ReplyDeleteऔरंगजेब व उसके जैसे अन्य धर्मांध बादशाहों (जिनके बारे प्रचारित है ) द्वारा पक्षपातपूर्ण धार्मिक नीतियाँ अपनाने के बाद भी इस देश में हिन्दू मुसलमानों के बीच कटुता नहीं बढ़ी जबकि मुस्लिम शासकों व हिन्दू शासकों के बीच उस समय रोज युद्ध होते थे | पर देश की आजादी के बाद तो ऐसे कोई युद्ध भी नहीं हुए पर फिर भी धार्मिक कटुता बढ़ी है कारण स्पष्ट है ये सब वोट के लालची छद्म धर्मनिरपेक्ष राजनैतिक दलों का किया धरा है | जब तक ये बात लोगों को समझ नहीं आएगी ये सब चलता रहेगा |
न्यायालय की भी खूब कही जहां सज़ा बरसों बाद मिलती है जब सब कुछ मटियामेट हो जाता है। और शायद सज़ा ज़ुल्म झेलने वाले को मिलती है और ज़ुल्मी खुले आम छाती ठोक कर घ्हूमता है... बस थोडा असर-ओ-रसूख चाहिए :)
ReplyDeleteबेहतरीन लेख के लिए आभार शाहनवाज भाई !
ReplyDelete-जब तक लोग प्यार का अर्थ नहीं समझना शुरू करेंगे ...
-जब तक लोग अपनी कौम को इंसानियत नहीं मानेंगे ...
-जब तक लोग इंसानियत को अलग अलग नामों से पहचानना बंद नहीं करेंगे...
और जब तक नीचता और लालच हम सब पर हावी रहेगा..
तब तक यह दुखद और तकलीफदेह क्रम चलता रहेगा !
शुभकामनायें आपको !
जब तक जनता जागरुक नही होती , तब तक हम इन नेताओ के कहने से एक दुसरे को मारते रहेगे, अरे जागो, ओर होश मे आओ आपस मे एक दुसरे को मारने की जगह इन नेताओ को मारो, यही हे दंगे फ़साद की जड... इन की बातो मे मत आओ
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