जाने किसकी निस्बत से है, मैं और मेरी तन्हाईयाँ
इक तो दुनिया संगदिल ठहरी, उस पर तेरी रुस्वाइयाँ
हर मांझी ने पार लगा ली, अपने जीवन की कश्ती
होते तो हम भी साहिल पे, पर तूफां की अंगड़ाईयाँ
भूल तो जाएं उसको लेकिन, मोहिनी सूरत दिल में बसी है
उन प्यारी आँखों की कशिश और उस चेहरे की परछाइयाँ
कैसे हो आँखों से ओझल, उन होटों का शोख तबस्सुम
गहरे समंदर सी गहरी हैं, उन आँखों की गहराइयाँ
उसकी मेहर से हर सू फैला, खुशियों का प्यारा मौसम
अब ढूंढे से मिलती नहीं है, रुखसारों की रानाइयाँ
गर्मी में माथे की बुँदे, झिल-मिल मोती लगती थी
दिल को घायल करती हैं अब, लहराएं जो पुरवाइयाँ
मस्तीं में अश्कों का रस भी, मदहोशी ले आता था
अफ़सुर्दा अब शाम है 'साहिल', चुभ जाती हैं शहनाइयाँ
- शाहनवाज़ सिद्दीकी 'साहिल'
शब्दार्थ:
निस्बत - सम्बंधित होना, संग - पत्थर (कठोर),
साहिल - किनारा,
तबस्सुम - हलकी हंसी / मुस्कराहट,
रुखसार - गाल
रानाईयाँ - सौंदर्य,
अफ़सुर्दा - उदास
हर मांझी ने पार लगा ली, अपने जीवन की कश्ती
ReplyDeleteहोते तो हम भी साहिल पे, पर तूफ़ान की अंगड़ाईयाँ
बेहद खूबसूरत गज़ल
वाह वाह!! बेहतरीन!!!!
ReplyDeleteक्या बात है, बहुआयामी प्रतिभा का आज पहली बार ये रूप भी देखा...
ReplyDeleteलगे रहो साहिल भाई...
जय हिंद...
कठिन शब्दों के अर्थ भी साथ में दे दिए...बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत खूब शाहनवाज़ भाई, एक बेहतरीन ग़ज़ल. बड़े हुनर छुपे हैं शानू जी मैं.
ReplyDeleteगर्मी में माथे की बुँदे झिल-मिल मोती लगती थी
ReplyDeleteदिल को घायल करती हैं अब, लहराएं जो पुरवाइयाँ
bahut khoob bhai
sundar gajal
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति के साथ कठिन शब्दों का अर्थ देकर उपरोक्त रचना में चार चाँद लगा दिए है.
ReplyDeleteपति द्वारा क्रूरता की धारा 498A में संशोधन हेतु सुझावअपने अनुभवों से तैयार पति के नातेदारों द्वारा क्रूरता के विषय में दंड संबंधी भा.दं.संहिता की धारा 498A में संशोधन हेतु सुझाव विधि आयोग में भेज रहा हूँ.जिसने भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के दुरुपयोग और उसे रोके जाने और प्रभावी बनाए जाने के लिए सुझाव आमंत्रित किए गए हैं. अगर आपने भी अपने आस-पास देखा हो या आप या आपने अपने किसी रिश्तेदार को महिलाओं के हितों में बनाये कानूनों के दुरूपयोग पर परेशान देखकर कोई मन में इन कानून लेकर बदलाव हेतु कोई सुझाव आया हो तब आप भी बताये
एक बेहतरीन रचना ! शुभकामनायें !
ReplyDeleteबहुत खूब शाहनवाज़ भाई
ReplyDeleteYe andaz bhi pyara lagaa.
ReplyDelete............
खुशहाली का विज्ञान!
ब्लॉगिंग का मनी सूत्र!
शानदार। हर शेर दाद के काबिल।
ReplyDeleteमस्तीं में अश्कों का रस भी मदहोशी ले आता था
ReplyDeleteअफ़सुर्दा हर शाम है 'साहिल', चुभ जाती हैं शहनाइयाँ
..वाह! प्रेम रस पीना, चाहे ऐसे ही जीना।
गर्मी में माथे की बुँदे झिल-मिल मोती लगती थी
ReplyDeleteदिल को घायल करती हैं अब, लहराएं जो पुरवाइयाँ
वाह वाह जी बहुत खुब, धन्यवाद
बहुत बढ़िया गज़ल । शुक्रिया !
ReplyDeleteगज़ब ढाया है जी आपने।
ReplyDeleteउम्दा गजल...हर शेर दिल को छूता हुआ
ReplyDeleteकैसे हो आँखों से ओझल, उन होटों का शोख तबस्सुम
ReplyDeleteगहरे समंदर सी गहरी हैं, उन आँखों की गहराइयाँ..
वाह! अद्भुत सुन्दर पंक्तियाँ! शानदार और उम्दा ग़ज़ल!
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (21.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
ReplyDeleteचर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
ek rachna pyari si..
ReplyDeletebahut khub..
वाह्……………शानदार गज़ल्।
ReplyDeleteउम्दा शेर कहे हैं आपने, बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल है !
ReplyDeletebahut sunder gazal ..!!
ReplyDeleteमस्तीं में अश्कों का रस भी, मदहोशी ले आता था
ReplyDeleteअफ़सुर्दा अब शाम है 'साहिल', चुभ जाती हैं शहनाइयाँ
इन उम्दा गजलों के द्वारा जीवन की सच्चाईयों को आभास भी देता ये प्रयास लग रहा है ।
शानदार प्रस्तुति...
अहसासों को शब्दों में किस खूबसूरती से पिरोया है..बहुत खूब लिखा है आपने ...मुबारकबाद
ReplyDeleteक्या बात है शाहनवाज़ भाई.. बस छा गए.... बधाई...
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ReplyDeleteवैसे यह बता तो दो यह लिखी किस ने है ?? शाहनवाज साहिल हैं ? कौन इनका परिचय तो कोई जानता नहीं भाई जी !
और अगर यह आप ही हैं तो एक पार्टी हो जाए !
गज़ल का भाव पक्ष बहुत सुन्दर है| बधाई|
ReplyDeleteकैसे हो आँखों से ओझल, उन होटों का शोख तबस्सुम
ReplyDeleteगहरे समंदर सी गहरी हैं, उन आँखों की गहराइयाँ
....बहुत ख़ूबसूरत गज़ल..
बेहतरीन ग़ज़ल लिखी है जनाब आपने.. मज़ा आ गया...
ReplyDelete"सुख-दुःख के साथी" पे आपके विचारों का इंतज़ार है...
आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा| आपकी भावाभिव्यक्ति बहुत सुन्दर है और सोच गहरी है! लेखन अपने आप में संवेदनशीलता का परिचायक है! शुभकामना और साधुवाद!
ReplyDelete"कुछ लोग असाध्य समझी जाने वाली बीमारी से भी बच जाते हैं और इसके बाद वे लम्बा और सुखी जीवन जीते हैं, जबकि अन्य अनेक लोग साधारण सी समझी जाने वाली बीमारियों से भी नहीं लड़ पाते और असमय प्राण त्यागकर अपने परिवार को मझधार में छोड़ जाते हैं! आखिर ऐसा क्यों?"
"एक ही परिवार में, एक जैसा खाना खाने वाले, एक ही छत के नीचे निवास करने वाले और एक समान सुविधाओं और असुविधाओं में जीवन जीने वाले कुछ सदस्य अत्यन्त दुखी, अस्वस्थ, अप्रसन्न और तानवग्रस्त रहते हैं, उसी परिवार के दूसरे कुछ सदस्य उसी माहौल में पूरी तरह से प्रसन्न, स्वस्थ और खुश रहते हैं, जबकि कुछ या एक-दो सदस्य सामान्य या औसत जीवन जी रहे हैं| जो न कभी दुखी दिखते हैं, न कभी सुखी दिखते हैं! आखिर ऐसा क्यों?"
यदि इस प्रकार के सवालों के उत्तर जानने में आपको रूचि है तो कृपया "वैज्ञानिक प्रार्थना" ब्लॉग पर आपका स्वागत है?
वाह क्या मैने पहले ये ब्लाग नही देखा? अरे यहाँ तो गज़लों का खज़ाना छुपा पडा है। अब धीरे धीरे सब पडःाती हूँ हाँ एक बात अच्छी लगी जो उर्दू शब्दों का अर्थ दिया अब मेरी उर्दूओ वोकैबलरी कुछ तो बनेगी।
ReplyDeleteहर मांझी ने पार लगा ली, अपने जीवन की कश्ती
होते तो हम भी साहिल पे, पर तूफ़ान की अंगड़ाईयाँ
वाह खूबसूरत गज़ल के लिये बधाई।
Bahut sundar. Your choice of words is beautiful beyond words...:)
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