तानाशाही का दंश झेल रहे अरब महाद्वीप की जनता में अचानाक गुस्से का उबाल आ गया है और इसी उबाल के चलते वहां के तानाशाहों की सत्ता की चूलें हिलने लगीं हैं। ट्यूनीशिया के शासक बेन अली 23 साल तक वहां की जनता पर काबिज़ रहे, लेकिन जनता जनार्दन ने पिछले महीने हुई जैस्मीन क्रांति के द्वारा उसको ऐसा सबक सिखाया कि देश छोड़कर भागने पर मजबूर होना पड़ा। जंगल की आग की तरह भड़की यह आग ट्यूनीशिया से मिस्र तक कब पहुँच गई किसी को खबर ना हुई। मिस्र के लोग भी हुस्ने-मुबारक की तानाशाही को तीस वर्षो से झेलते-झेलते थक चुके थे। ट्यूनीशिया की जैस्मीन क्रांति से उन्हें भी एक नई राह दिखाई दी, यह राह थी आज़ादी की और वह भी बह गए आज़ादी की क्रांति की इस हवा में।
भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी एवं भुखमरी से त्रस्त मिस्र के लोगों ने मुबारक सरकार को नेस्त-नाबूद करने का बीड़ा उठा लिया है। हालाँकि हुस्ने-मुबारक ने इन दिनों कई सुधार-वादी कदम उठाएं हैं। अपनी पूरी कैबनेट भंग करके वायुसेना प्रमुख को प्रधानमंत्री तथा अपने गुप्तचर प्रमुख को उपराष्ट्रपति बनाया है, लेकिन लोगो के गुस्से की आग है कि शांत होने की जगह और भी अधिक भड़क रही है। यहाँ तक कि इस आग की तपिश यमन और जोर्डन में भी महसूस होने लगी है। सउदी अरब शाह के हुस्ने-मुबारक के समर्थन में उतर आने का भी वहां की जनता पर कोई फर्क नहीं पड़ा है, ज्ञात रहे कि ट्यूनीशिया के शासक बेन अली को भी सउदी अरब के शाही परिवार ने ही शरण दी है।
काहिरा सहित पुरे मिस्र में हुई हिंसा एवं सशस्त्र बलों के साथ हुई झडपों में अब तक 150 से अधिक लोग मौत का शिकार हो चुके हैं, और इसी बात से तंग आकर वहां की सेना ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कार्यवाही ना करने का ऐलान कर दिया है। मिस्र के राष्ट्रपति हुस्ने-मुबारक के लिए वहां की सेना के द्वारा प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही ना करने का एलान ही अब तक का सबसे बड़ा सिरदर्द बन गया है। अब तक अमेरिका से मिले अनुदान के ज़रिये सेना का पोषण करने वाले हुस्ने-मुबारक के खिलाफ सेना का रवैय्या अंतरराष्ट्रिय जगत के लिए चौकाने वाला है। शायद मुबारक को यह डर सताने लगा है कि कहीं जो काम उन्होंने 30 साल पहले वायु सेना के कमांडर रहते किया था, वहीँ काम आज की सेना भी ना कर दे। उन्होंने उस समय अनवर सादात को मरवा कर सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया था। अपने इसी डर के चलते मुबारक ने अपने पुत्र को पहले ही देश से बाहर भेज दिया है।
अरब देशों के तानाशाहों से पहले ही त्रस्त आ चुकी जनता के गुस्से के उबाल में शासकों के भ्रष्टाचार और अमेरिका के वरदहस्त ने आग में घी जैसा काम किया है। ज्ञात रहे कि 1979 में ईरान के शाह रजा पहलवी को भी इसी तरह सत्ता से बेदखल कर दिया गया था।
बड़ा सवाल यह है कि क्या इस क्रांति से यह मतलब निकला जाए कि अरब देशों की जनता भी इंडोनेशिया अथवा मलयेशिया की तरह लोकतंत्र की ओर बढ़ रही है?
एक बात तो तय है कि लोगों को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होती है बस बात इतनी सी है कि उनका धैर्य कब तक साथ देता है
ReplyDeleteहाडौती में कहते हैं-
ReplyDeleteमरयाँ बना सरग न दीखै।
क्या पता??? समय ही बताएगा.....
ReplyDeleteलोकतंत्र?????????????क्या बात है....
डेमोक्रसी.: बकौल अशोक चक्रधर.....
जहां जानकी की जनता के लिए जनता के द्वारा ऐसी तैसी होती है वही डेमोक्रेसी होती है....
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मन में दबा स्वर बाहर आ रहा है।
ReplyDeleteजब किसी को भी हद से ज्यादा दबाया जाये तो नतीजा यही होता हे
ReplyDeleteहमे तो लोक तन्त्र ही रास नही आ रहा\ वैसे भी बदलाव कुदरत का नियम है। बात पंजाबी मे ये भी है किसे नूँ माँह वादी ते किसे नू स्वादी। इस क्रन्ति से मिले लोक तन्त्र की अगर लोग अहमियत समझें तभी इसका फायदा है। अगर भारत की तरह लोक तन्त्र का मज़ाक ही उडाना है तो क्या फायदा। शुभकामनायें।
ReplyDeletePure sansar ke liye ek udaharan hai ye
ReplyDeleteकाजल कुमारजी सत्य वचन मे आपसे बिलकुल सहमत हु.
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