दैनिक हरिभूमि के कल दिनांक 23 नवम्बर को प्रष्ट संख्या 4 पर प्रकाशित मेरा व्यंग्य
पड़ोस का मकान नगर निगम वाले ढहा गए! शेख जी ने खुशखलकी से शेखानी को खबर दी। वह बोली ‘अरे! ऐसा कैसे? ‘बिना नक्शा पास और इजाज़त लिए जो बना था।’ शेखानी चैंकी ‘लेकिन हमारी कॉलोनी में तो एक भी मकान नक्शा पास करवाकर नहीं बना।?‘ शेख जी ने शोखी में बोला ‘अपने नगर निगम वाले भी आजकल प्रोफेशनल स्टाईल में काम करते हैं। पहले घूम कर मोटी पार्टी ढूंढते हैं, फिर घर पर धावा बोल देते हैं। आमतौर पर मकान गिराने की धमकी से ही वसूली हो जाती है, अगर फिर भी कुछ कमाई ना हो तो भी कोई परेशानी नहीं! घर पर एक-दो नोटिसं भेजकर डराने का चांस जो रहता है। और अगर कोई फिर भी ना माने तो घर तो कभी भी गिराया ही जा सकता है।’
‘कहीं हमें भी नोटिस आ गया तो’ शेखानी बोली! ‘अब इतने मोटे-मोटे शिकार देखकर हम जैसे मरियलों के यहां कौन आएगा, सो डरना छोड़ो और धड़ल्ले से कुछ भी करो। फिर अपना तो पुराना मकान है और पुराने पाप माफ होते हैं।’ ‘ऐसा कैसे? कानून तो सबके लिए बराबर है’ शेख जी ने भी लेक्चर पूरा करने की तैयारी के साथ जवाब देने का मूड बनाया ‘जब हम कॉलोनी में आए थे तो क्या एक भी दुकान थी सड़क पर?’ शेखानी बोली ‘नहीं’। ‘अब कितनी हैं?’ ‘अब तो बाहर की सड़क से घर तक आने में आधा घण्टा लग जाता है’। ‘तो क्या तुमने सुना की एक भी दुकान बंद हुई या गिराई गई?’
‘गिराई क्यों जाएगी भला, दुकानें तो लोगो के फायदे के लिए बनी हैं?’ ‘हां फायदा हो तो रहा है, मकान लेते समय सोचा था कितनी खुली और साफ-सुथरी कॉलोनी है। परंतु भीड़भाड़ की आदत के कारण दिल ही नहीं लगता था। ना दुकानों की चकाचैंध, ना हॉकर्स की चिल्ल-पौं। माना देश में बिजली की कमीं है लेकिन अगर दुकानों में इतनी लाईट्स ना झिलमिलाए तो फिर रौनक ही क्या? जीवन एकदम फीका और बकवास! उपर से पैदल चलने की आदत ही समाप्त होती जा रही थी, भला हो हमारे बाज़ारों का पांच मिनट का रास्ता आधा घण्टे में तय करने का मौका मिल जाता है। बोर होने से बचाने का भी पूरा इंतज़ाम होता है, सामान बेचने के लिए बड़ी हसीन आवाज़ें निकाल कर राहगीरों का मनोरंजन करते है।
अब तुम ही बताओं इतना फायदा पहुचाने वाले अगर थोड़ा सा कानून तो़ड़ कर रिहायशी इलाके में दुकान बना ले तो कोई गुनाह है क्या? अरे इन दुकानदारो की कृपा दृष्टि से कितने ही गरीब कर्मचारियों आज अमीरों की फेहरिस्त में आते हैं। और सिर्फ वह ही क्यों बल्कि हम जैसे गरीबों को भी किराए के रूप में तगड़ा पैसा मिलता है, प्रोपर्टी डिलरों की पौं-बारह हुई सो अलग। अब जिनको फायदा नहीं होता वह चिल्लाता रहता है, इतने उपकार करने वालों के खिलाफ नारेबाज़ी करके नेतागिरी चमाकाते हैं।
लेकिन यहां भी डरने की कोई बात नहीं है, ऐसे फालतू लोगो की आवाज़ नक्कार खाने में तूती बजाने जैसी ही होती है।’
लेकिन यहां भी डरने की कोई बात नहीं है, ऐसे फालतू लोगो की आवाज़ नक्कार खाने में तूती बजाने जैसी ही होती है।’
- शाहनवाज़ सिद्दीकी
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Nice पोस्ट .
ReplyDeleteभाई बड़ा जोरदार व्यंग्य है .... आभार
ReplyDeleteचाँद है जेरे कदम और सूरज खिलौना हो गया
ReplyDeleteहां , मगर इन्सान का किरदार बौना हो गया .
ब्लागर मीट अच्छी लगी ।
ReplyDeleteइसकी सबसे अच्छी बात यह रही कि इसमें मीट विरोधी और मीट समर्थक दोनों ही थे परंतु फिर भी इनमें कोई राड़ नहीं हुई ।
'राड़' शब्द का अर्थ बताएंगे नीरज जाट जी .
धन्यवाद well wisher जी और महेंद्र मिश्र जी....
ReplyDeletewell wisher जी ब्लोगर मीट आपको अच्छी लगी, यह भी अच्छी बात है... जहाँ तक राड़ का मतलब है, वह हमें भी पता है, लेकिन ब्लोगर मीट में समर्थक और विरोधी जैसा कोई मसला ही नहीं थी, वहां हर अच्छी बात के सभी समर्थक थे, और हर गलत बात के सभी विरोधी...
nice article
ReplyDeleteशाहनवाज सिद्दीकी जी ! जैसा आप कह रहे हैं ऐसा वास्तव में है नहीं परंतु जब हो जाएगा तो ब्लागभूमि हरिभूमि भी बन जाएगी और हरी भूमि भी अर्थात पूरी तरह से शांत , जो कि अभी तो है नहीं .
ReplyDeleteयूं आप सत्य को ठुकरा दें तो वह भी चलेगा .
क्योंकि सच होता है कड़वा और कड़वा आपने परोस दिया तो फिर आपका प्रेमरस चखेगा कौन ?
आपके व्यंग्य बहुत सार्थक और गहरे होते हैं। आभार इस पोस्ट के लिये और मुबारकबाद
ReplyDeleteहा हा हा .... :-)
ReplyDeleteमै अच्छा ना कहू तो भी क्या अच्छा नहीं होगा ? अच्छा है तभी तो वंहा छपा है | राजस्थानी भाषा में राड का मतलब झगडा होता है |
ReplyDeleteव्यवस्था पर सपाट व्यंग।
ReplyDeleteMazza aa gaya..
ReplyDelete... bahut khoob ... shaandaar !!!
ReplyDeleteआसक्ति बहुत बुरी चीज बताई गई है संतों की वाणी में । भारतीय जनता आसक्ति में आज आकंठ डूबी हुई है ।
ReplyDeleteनगर निगम वाले धन का हरण करके जनता को महाठगिनी माया की आसक्ति से मुक्त करते हैं ।
उनके परोपकारी रूप को समझने के बजाए आप उन पर कीचड़ उछाल रहे हैं ?
आप देख लीजिए वे उस धन को अपने पास नहीं रखते बल्कि उसे वे लोगों की भलाई में खर्च कर देते हैं ।
यह बात अलग है कि वे लोग होते हैं उनके परिवारीजन ।
किसी दूसरे का क्या पता कि मदद का पात्र है भी कि नहीं , घर वालों का तो पता होता है ।
MAJEDAR, MAIN BHI KANHU KI ITNI SARDI KYON HAI AKHIR
ReplyDeleteजोरदार व्यंग्य वधाई !
ReplyDeleteनोट: यह टिपण्णी बदले में टिपण्णी पाने की गरज / उम्मीद से नहीं की गई है
@ @ P. C. गोदियाल जी ! आज आपके कमेंट ने हंसी को मेरे वुजूद के निहां ख़ाने तक सरायत करा दिया , एक अच्छे कमेंट के लिए आप मेरी दिली मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाएं ।
ReplyDeleteआज मैं आपके Sense of humour and witt की जमकर तारीफ़ करता हूं ।
देख लीजिए ! आपने तो मेरी तारीफ करने का सिर्फ इरादा ही जाहिर किया था लेकिन मैंने तो कर ही दी ।
शेखानी की बात पसंद आई ! लगता है सेठानी की बहिन है :-))
ReplyDeleteअच्छा व्यंग है
ReplyDeleteशाहनवाज सिद्दीकी जी
ReplyDeleteनमस्कार !
आपके व्यंग्य बहुत गहरे होते हैं
निगम को क्या तो गम है
ReplyDeleteयही तो उसका निकम्मापन है
खूब सही कही शाहनवाज भाई।
ऊंट घोड़े अमेरिका जा रहे हैं हिन्दी ब्लॉगिंग सीखने
बहुत चिंतित है ब्लु लाइन बसे
सटीक और बेहतरीन व्यंग्य!
ReplyDeleteबधाई.
सरकारी निजाम पर बहुत तेज़ हमलें करते हैं आप अपने व्यंग के ज़रिये.
ReplyDeleteनगर निगम ही क्या सभी सरकारी महकमे निकम्मे हो चुके हैं शाहनवाज़ भाई और हमारी सरकार अंधी और गूंगी नज़र आ रही है.यह बहुत खतरनाक बात है, देश में पक्ष-विपक्ष सब सत्ता और पैसे के पीछे भूखे भेडिये की तरह पड़े हुए हैं.
ReplyDeleteNice critics
ReplyDeleteअच्छी प्रस्तुती...वास्तव में दिल्ली में निगम से वे लोग ज्यादा परेशान हैं जिन्होंने किसी कुकर्मी नेता....कुकर्मी प्रोपर्टी डीलर......या किसी कुकर्मी MP ..MLA को घास नहीं डाला.......कुछ निगम के अधिकारी और कर्मचारी इतने भ्रष्ट हैं की इनको अगर सरे आम नंगा करके गधे पे घुमाया जाय तो भी उनके कुकर्मों की सजा कम ही लगेगी ......इन सालों ने अच्छे लोगों का जीना हराम कर दिया है.....
ReplyDeleteसश्क्त व्यंग है। आभार।
ReplyDeleteBhai Nigam Ki Ye Chal Humhe Bahut Pasan Aayi.
ReplyDeleteManoj Jain
बहोत खुब लिखा है शाहनवाज भाई
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