(दैनिक हरिभूमि के आज [26 जुलाई] के संस्करण में प्रष्ट न. 4 पर मेरा व्यंग्य)
हम गांव से दिल्ली के लिए स्कूटर लेकर निकल पड़े। माताजी ने समझाया कि बस से जाओ, लेकिन हमने सोचा कि स्कूटर से जाएंगे तो रौब पड़ेगा। बार्डर पहुंच कर जैसे ही प्रवेश की कोशिश की तो मामाजी ने रोक लिया। पेपर चेक करने के बाद भी जब कुछ नहीं मिला तो बोले, "क्या पहली बार दिल्ली आए हो?" हमने गर्व से कहा "नहीं जी आता रहता हूँ।" "फिर भी बिना लाईट की गाड़ी चला रहे हो!" हमने कहा "अभी तो दिन है, पहुंच कर ठीक करवा लूंगा।" गुर्राकर बोले "रास्ते में रात हो गई तो?" "पेड़ के पास खड़े पानी वाले को हरी पत्ती थमा कर निकल जा।" समझ में तो कुछ आया नहीं, सोचा उसी से मालूम करते हैं। उसने बताया "भैया हरी पत्ती का मतलब सौ रूपया वर्ना स्कूटर ज़ब्त।" बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाया और भगवान का नाम लेकर आगे चल दिया। कुछ दूर चलने पर लाल बत्ती मिली, हरी होने पर हमने अपने स्कूटर में किक मारी, मगर यह क्या! सामने से एक धनधनाती हुई बाईक हमारे स्कूटर को ज़मीदौज़ करते हुए निकल गई। शायद उस भले मानुष को अपनी लाल बत्ती दिखाई नहीं दी। हम अपनी चोटों पर करहाते हुए बड़ी मुश्किल से उठे और अपनी शर्म को छुपाते हुए किसी तरह स्कूटर को स्टार्ट करके आगे चल दिए। कुछ दूर ही चले थे कि एक गाड़ी हमारे बाएं हाथ की तरफ से ओवरटेक करते हुए तेज़ी से निकली। ड्राइवर चिल्लाया "चलना नहीं आता तो दिल्ली में आते ही क्यों हों?" बड़ी मुश्किल से अपने स्कूटर को संभाला, लेकिन समझ में नहीं आया कि हमारी गलती क्या थी? सोचा कि शायद हमें ही हार्न सुनाई ना दिया हो और बेचारा मजबूरी में उलटी तरफ से निकला हो! जब समझ के कुएं से पानी नहीं निकला तो हमने आगे चलने में ही भलाई समझी।
अल्ला-अल्ला करते हुए आगे बढ़े, तो देखा कि एक कार सवार रफ्तार के नशे में साईकिल सवार को नहीं देख पाया। वैसे भी गरीबों को देखता कौन है, उसने ही नहीं देखा तो क्या गुनाह किया? मैंने गुहार लगाई कि इसको अस्पताल ले चलो, तो एक चिल्लाया "पागल हो गया है क्या? पुलिस को जवाब कौन देगा?" "यार! एक मरते हुए की जान बचाने में पुलिस क्यों सवाल करेगी?" एक व्यक्ति ने फिर वही सवाल किया "अबे, दिल्ली में नया आया है क्या?" हमने झेंप मिटाने के इरादे से कहा "नहीं जी, आता रहता हूँ" तो एक तपाक से बोला "फिर बेवकूफी की बातें क्यों कर रहा है?" जब पुलिस उसे लेकर चली गई तो जान में जान आई।
गाड़ियों की रफ़्तार देखकर लगता है जैसे कोई इनके पीछे पड़ा है, कुछ पलों की जल्दी में हम कितनी ही जानों को खतरे में डाल देते हैं। सड़क हादसों के कारण हज़ारों लोग अपनी जान अथवा शरीर के महत्त्वपूर्ण अंगो से हाथ गवां बैठते हैं। अनेक सवालों के साथ हम तो अपनी मंज़िल पर पहंच गए, लेकिन कितने लोग मंज़िल को पहुंचते होंगे, कभी किसी ने सोचा है?
-शाहनवाज़ सिद्दीकी
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हम गांव से दिल्ली के लिए स्कूटर लेकर निकल पड़े। माताजी ने समझाया कि बस से जाओ, लेकिन हमने सोचा कि स्कूटर से जाएंगे तो रौब पड़ेगा। बार्डर पहुंच कर जैसे ही प्रवेश की कोशिश की तो मामाजी ने रोक लिया। पेपर चेक करने के बाद भी जब कुछ नहीं मिला तो बोले, "क्या पहली बार दिल्ली आए हो?" हमने गर्व से कहा "नहीं जी आता रहता हूँ।" "फिर भी बिना लाईट की गाड़ी चला रहे हो!" हमने कहा "अभी तो दिन है, पहुंच कर ठीक करवा लूंगा।" गुर्राकर बोले "रास्ते में रात हो गई तो?" "पेड़ के पास खड़े पानी वाले को हरी पत्ती थमा कर निकल जा।" समझ में तो कुछ आया नहीं, सोचा उसी से मालूम करते हैं। उसने बताया "भैया हरी पत्ती का मतलब सौ रूपया वर्ना स्कूटर ज़ब्त।" बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाया और भगवान का नाम लेकर आगे चल दिया। कुछ दूर चलने पर लाल बत्ती मिली, हरी होने पर हमने अपने स्कूटर में किक मारी, मगर यह क्या! सामने से एक धनधनाती हुई बाईक हमारे स्कूटर को ज़मीदौज़ करते हुए निकल गई। शायद उस भले मानुष को अपनी लाल बत्ती दिखाई नहीं दी। हम अपनी चोटों पर करहाते हुए बड़ी मुश्किल से उठे और अपनी शर्म को छुपाते हुए किसी तरह स्कूटर को स्टार्ट करके आगे चल दिए। कुछ दूर ही चले थे कि एक गाड़ी हमारे बाएं हाथ की तरफ से ओवरटेक करते हुए तेज़ी से निकली। ड्राइवर चिल्लाया "चलना नहीं आता तो दिल्ली में आते ही क्यों हों?" बड़ी मुश्किल से अपने स्कूटर को संभाला, लेकिन समझ में नहीं आया कि हमारी गलती क्या थी? सोचा कि शायद हमें ही हार्न सुनाई ना दिया हो और बेचारा मजबूरी में उलटी तरफ से निकला हो! जब समझ के कुएं से पानी नहीं निकला तो हमने आगे चलने में ही भलाई समझी।
अल्ला-अल्ला करते हुए आगे बढ़े, तो देखा कि एक कार सवार रफ्तार के नशे में साईकिल सवार को नहीं देख पाया। वैसे भी गरीबों को देखता कौन है, उसने ही नहीं देखा तो क्या गुनाह किया? मैंने गुहार लगाई कि इसको अस्पताल ले चलो, तो एक चिल्लाया "पागल हो गया है क्या? पुलिस को जवाब कौन देगा?" "यार! एक मरते हुए की जान बचाने में पुलिस क्यों सवाल करेगी?" एक व्यक्ति ने फिर वही सवाल किया "अबे, दिल्ली में नया आया है क्या?" हमने झेंप मिटाने के इरादे से कहा "नहीं जी, आता रहता हूँ" तो एक तपाक से बोला "फिर बेवकूफी की बातें क्यों कर रहा है?" जब पुलिस उसे लेकर चली गई तो जान में जान आई।
गाड़ियों की रफ़्तार देखकर लगता है जैसे कोई इनके पीछे पड़ा है, कुछ पलों की जल्दी में हम कितनी ही जानों को खतरे में डाल देते हैं। सड़क हादसों के कारण हज़ारों लोग अपनी जान अथवा शरीर के महत्त्वपूर्ण अंगो से हाथ गवां बैठते हैं। अनेक सवालों के साथ हम तो अपनी मंज़िल पर पहंच गए, लेकिन कितने लोग मंज़िल को पहुंचते होंगे, कभी किसी ने सोचा है?
-शाहनवाज़ सिद्दीकी
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Keywords:
दैनिक हरिभूमि, व्यंग, व्यंग्य, Hindi Critics
मैंने गुहार लगाई कि इसको अस्पताल ले चलो, तो एक चिल्लाया "पागल हो गया है क्या? पुलिस को जवाब कौन देगा?" "यार! एक मरते हुए की जान बचाने में पुलिस क्यों सवाल करेगी?" एक व्यक्ति ने फिर वही सवाल किया "अबे, दिल्ली में नया आया है क्या?"
ReplyDeleteबरी दर्दनाक अवस्था है इंसानियत की ,इस कोमनवेल्थ गेम ने तो दिल्ली में भ्रष्टाचार का वो नंगा खेल खेला है की दिल्ली यानि जहाँ दिल नाम की कोई चीज हो ही नहीं ,हो गयी है ...
Bahut Badhiya , Lekin wo log koi aur nahi hote hain. hami main se hote hain.
ReplyDeleteagar aag bike se ja rahe hain to Car wale ko gali denge.
aur agar aap Car se ja rahen hain to Bike wale ko gali denge.
सम्हाल कर ही चलायें।
ReplyDelete@ honesty project democracy
ReplyDeleteझा जी कोमनवेल्थ खेलों के बारे में आपने सही कहा................. काम तो खूब हो रहे हैं, लेकिन खोखले. क्योंकि अफसरों और कांट्रेक्टरों की जेब भरने पर अधिक ध्यान दिया जा रहा है.
@ Tarkeshwar Giri
बिलकुल गिरी, यह लोग भी हमारे समाज में से ही आते हैं, इसलिए मेरे विचार से सुधरने की शुरुआत भी स्वयं से ही होनी चाहिए.... कोई और सुधरे न सुधरे, मैं सुधर जाऊं, अगर यह सोच हो तो दुसरे भी अपने आप ही सुधर जाएंगे.
@ प्रवीण पाण्डेय said...
लगता है बचके ही चलना पड़ेगा ;-)
शाहनवाज़ भाई... आपके व्यंग्य का जवाब नहीं.... हैट्स ऑफ ...
ReplyDeleteबहुत उम्दा!
ReplyDeleteनेताओं के ऊपर लिखा मेरा लेख "नेतागिरी की अजब कहानी" ज़रूर पढ़ें.
ReplyDelete- हरीश कुमार तेवतिया
i noted one thing you always wrote with in the circle of traffic !!! lol !!!
ReplyDeletebahoot khoob !!!
ये हाल दिल्ली का ही नही, हर शहर का है, बस ज़रा दिल्ली में कुछ ज़्यादा है.
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट
ReplyDeleteइस भागमभाग में आज किसी को सोचने का समय ही कहां हैं.. आदमी भी गाड़ी की ही तरह मशीन है आज
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट!!!!!
ReplyDeleteBahut bahut Badhayi.
ReplyDeleteपोल खोलने यानी सच्चाई ब्यान करने में व्यंग्य का कोई मुकाबला नहीं है, बधाई शाहनवाज जी को।
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ReplyDeleteबेटा कामदर्शी ! ये ज्ञान तुझे आर्य समाज के शोध पत्र से मिला है . बन्दर को मिल गयी हल्दी की गाँठ और वह खुद पंसारी समझने लगा . तू और अनवर एक जैसे हो . मेरे ब्लॉग पर आ, ज्ञान तुझे वहां मिलेगा .
ReplyDeleteबढिया व्यंग्य
ReplyDeleteहम हरिभूमि के पाठक हैं और संपादकीय पन्ने को नियमित पढ़ते हैं, आपकी पिन चुभोने वाली शैली पसंद हैं हमें.
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति कल २८-७-२०१० बुधवार को चर्चा मंच पर है....आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा ..
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
आपने तो बहुत अच्छा व्यंग्य लिखा...
ReplyDelete________________________
'पाखी की दुनिया ' में बारिश और रेनकोट...Rain-Rain go away..
bht badiya likha hai aapne,...jab humhari police hi aise hai ,toh bechari janta ki kya galti...
ReplyDeleteactully, yahan koi kanoon-vivastha hi nahi hai...aur bharat -sarkaar ko koi fark nahi padta...ki aam janta ki kya haalat hai..
well great...
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